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Saturday, November 30, 2019

सामान्य-ज्वर (Continued Fever) Causes, Symptoms, Medicines


कारण-इस ज्वर का कोई विशेष कारण नहीं होता । सर्दी लग जाना, अधिक परिश्रम
असंयमित खान-पान तथा मानसिक-उद्वेग आदि से यह ज्वर उत्पन्न हो सकता है।


लक्षण-इस ज्वर के प्रारम्भ में सम्पूर्ण शरीर में दर्द, सिर में पीड़ा, ठण्ड लगना अथवा
कम्प, वमन आदि लक्षण प्रकट होते हैं । फिर शरीर का तापमान अचानक ही बढ़ जाता है तथा
तीव्र प्यास एवं प्रबल सिरोव्यथा की प्रधानता हो जाती है । नाड़ी की चाल तीव्र रहती है. जीभ
पर मैल चढ़ जाता है । शरीर का तापमान 102° से 104° डिग्री तक बढ़ जाता है । यह उच्च
तापक्रम कई दिनों तक एक जैसा बना रहकर, पांच-सात दिन बाद घटने लगता है। ऐसा ज्वा
प्रायः 10 दिनों से अधिक समय तक स्थायी नहीं रहता ।


चिकित्सा-इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।
फेरम फॉस 6x-यह हर प्रकार के ज्वरों की मुख्य-औषध है । ठण्ड का अनुभव, प्रदाह.
सर्दी, वात ज्वर आदि सभी स्थितियों तथा रोग की प्रारम्भिक अवस्था में इस औषध के प्रयोग
से रोग जड़ से दूर हो जाता है । यदि ज्वर के साथ अन्य उपसर्ग भी हों तो उनके लिए
सुनिर्वाचित औषध-लवण के साथ पर्यायक्रम से इसका प्रयोग करना चाहिए । नाड़ी की तीव्रता
तथा शारीरिक उत्ताप में वृद्धि-इस औषध के निर्देशक लक्षण हैं ।
केलि-म्यूर 6x-ज्वर-रोग में इस औषध का स्थान 'फेरम-फॉस' के बाद आता है।
जीभ पर सफेद मैल तथा कब्ज के लक्षण युक्त ज्वर में 'फेरम-फॉस' के साथ पर्याय-क्रम से
इसका प्रयोग करना चाहिए । प्रदाह तथा रक्त के जमाव की द्वितीयावस्था में यह औषध विशेष
हितकर है।
के लि-फॉस 6x-नाड़ी की गति में असमानता, स्नायविक-ज्वर, तीव्र उत्ताप एवं
स्नायविक-उत्तेजना के साथ कमजोरी के लक्षणों में 'फेरम-फॉस' के साथ पर्याय-क्रम से इसका
प्रयोग करना चाहिए । दुर्गन्धित तथा अत्यधिक मात्रा में आने वाले पसीना के लक्षणों में यह
विशेष हितकर है।
कैलि-सल्फ 6x-तीसरे प्रहर ज्वर का उत्ताप बढ़ जाना इस औषध का निर्देशक-लक्षण
हैं । यदि 'फेरम-फॉस' के सेवन से भी पसीना न आये तो इसके सेवन से पसीना आ जाता है।
रक्त के दूषित हो जाने के कारण आने वाले ज्वर में इसका प्रयोग हितकर सिद्ध होता है । शाम
से आधी रात तक बुखार का बढ़ना एवं उसके बाद घटने के लक्षणों में भी यह हितकर है।
नेट्रम-म्यूर 6x-ज्वर के आरम्भ में जीभ बहुत सूखी दिखाई दे, सर्दी के कारण ज्वर एवं
आँख-नाक से पानी जैसी पतली सर्दी के स्राव के लक्षणों में 'फेरम-फॉस' के साथ पर्याय-क्रम
इसका प्रयोग करना चाहिए। प्रात: से दोपहर तक ठण्ड का अनुभव, प्रात: 10 बजे से सिर-दद
का प्रारम्भ तथा उसके साथ प्यास, थकान एवं कमर के दर्द के लक्षणों में विशेष हितकर है।
निम्नलिखित लक्षणों में निम्नलिखित औषधियों का पर्याय-क्रम से अथवा मिश्रित रूप में
भी प्रयोग हितकर सिद्ध होता है-
फेरम-फॉस 6x, नेट्रम-म्यूर 6x-जब ज्वर चढ़ा हुआ हो एवं सिर में दर्द तथा प्रयास
की अधिकता हो।
फेरम-फॉस 6x, नेट्रम-सल्फ 6x-ज्वर, सिर-दर्द, व्याकुलता, वमन तथा कभी-कभी
दस्त भी हो जाने के लक्षणों में।
नेट्रम-म्यूर 6x, नेट्रम-सल्फ 6x-जिस समय ज्वर न हो तथा उसे रोकना आवश्यक
हो, साथ ही पहले क्विनीन का सेवन कराया जा चुका हो।

विशेष- सामान्य-ज्वर में फेरम-फॉस 12x, कैलि-म्यूर 3x तथा नेट्रम-सल्फ 3x
मिलाकर देने से शीघ्र लाभ होता है । इन औषधियों को दो-दो घण्टे बाद देना चाहिए । • यदि
इनसे लाभ न हो तो कैल्केरिया-फ्लोर 3x, कैलि-फॉस 3x अथवा 12x, फेरम-फॉस 12x,
कैलि-म्यूर 3x, कैलि-फॉस 3x, कैलि-सल्फ 3x, मैग्नेशिया-फॉस 3x, नेट्रम-फॉस 3x,
नेट्रम-सल्फ 3x, तथा साइलिसिया 12x-इन सबको एक साथ गुन-गुने पानी में घोलकर रख
लें तथा 2-2 घण्टे के अन्तर से एक-एक मात्रा पिलायें । • यदि बेहोशी हो तो इस नुस्खे में
नेट्रम-म्यूर 3x और मिला दें। इससे हर प्रकार के सामान्य ज्वर तथा मलेरिया ज्वर भी ठीक हो
जाते हैं। जब एक औषध के प्रयोग से लाभ न हो तभी दो अथवा अधिक औषधियों वाले
नुस्खों को प्रयोग में लाना चाहिए।

टिप्पणी-रोग की अवस्थानुसार अकेली दवाओं का प्रयोग उल्लिखित शक्ति से अधिक
उच्च शक्ति में भी किया जा सकता है।

आनुषंगिक-व्यवस्था- • यदि ज्वर में प्यास के लक्षण हों तो खौलते हुए पानी को
ठण्डा करके रोगी को इच्छित मात्रा में खूब पिलाना उचित रहता है ।
•पर्ल-बार्ली को सिझाकर छान लें तथा उस पानी में थोड़ा-सा नमक अथवा मिश्री के
साथ कागजी नीबू का रस मिलाकर देने से प्यास रुकती है तथा पेशाब भी खुलकर यथोचित
परिमाण में होता है।

Friday, November 29, 2019

Protein introduction, Benifits, Requirements, Sources

परिचय-
भोजन का मुख्य आवश्यक तत्व है- प्रोटीन। यही तत्व शरीर की कोशिकाओं अर्थात् मांस आदि का निर्माण करता है।

इसकी प्रचुर मात्रा भोजन में रहने से शरीर की कोशिकाओं का निर्माण और मरम्मत आदि का कार्य सुचारू रूप से जीवन भर चलता रहता हैं। प्रोटीन में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन तथा गंधक के अंश मिले रहते हैं। इसमें फास्फोरस भी विद्यमान हो सकता है। प्रोटीन में नाइट्रोजन की अधिकता रहती है। प्रोटीन दो प्रकार का होता है (1) पशुओं से प्राप्त होने वाला (2) फल, सब्जियों तथा अनाज आदि से मिलने वाला। हालांकि शरीर में यदि प्रोटीन अधिक हो जाए तो मल द्वारा बाहर निकल आता है।

 फिर भी दैनिक आवश्यकता के लिए नियमित प्रोटीन की आवश्यकता शरीर को रहती है लेकिन इस बात की ओर भी ध्यान देना अति आवश्यक है कि आवश्यकता से अधिक प्रोटीन लाभ की अपेक्षा शरीर को हानि भी पहुंचा सकता है परन्तु जब भोजन के बाद भी शरीर में प्रोटीन की कमी हो जाए तो बाहर से कृत्रिम तरीके से निर्मित प्रोटीन से उस कमी की पूर्ति करना बहुत जरूरी होता हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति किलोग्राम वजन के अनुपात से मनुष्य को एक ग्राम प्रोटीन की आवश्कता होती हैं अर्थात यदि वजन 50 किलो है तो नित्य 50 ग्राम प्रोटीन की आवश्यकता होती है। प्रोटीन शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन में मौजूद पाया जाता है। यदि दोनों को भोजन में एक साथ लिया जाए तो शरीर में प्रोटीन की प्रचुर मात्रा शामिल की जा सकती है। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि शरीर में जीवनीय तत्वों की कमी न हो तो शरीर रोगों से बचा रहता है। संक्रमणजन्य रोगों से बचाव के लिए प्रोटीन की अधिक आवश्यकता होती है।

प्रोटीन के स्रोत-
अण्डे की सफेदी, दूध, दही, पनीर, मछली, मांस, यकृत, वृक्कों और दिमाग में सर्वोत्तम किस्म की प्रोटीन विद्यमान है। दालों, हरी सब्जियों और अनाजों में दूसरे किस्म का प्रोटीन पाया जाता है।
अण्डे में प्रोटीन
क्र.स.
अंड
प्रोटीन
1.
पूर्ण अंडा
13.0 प्रतिशत
2.
अंडे की सफेदी
10.5 प्रतिशत
3.
अंडे की जर्दी
17.0 प्रतिशत
दूध में प्रोटीन
क्र.स.
प्राणी का नाम
प्रोटीन
1.
गाय का दूध
3.4 प्रतिशत
2.
बकरी का दूध
4.4 प्रतिशत
3.
भेड़ का दूध
6.7 प्रतिशत
4.
भैंस का दूध
5.9 प्रतिशत
5.
स्त्री का दूध
1.7 प्रतिशत


प्रोटीन की आवश्यकता
  • बच्चों को प्रोटीन की अधिक आवश्यकता होती है क्योंकि उनका शरीर विकास कर रहा होता है।
  • बुढ़ापे में भी शरीर को प्रोटीन की अत्यधिक आवश्यकता होती है क्योंकि यह एक ऐसी अवस्था होती है जब प्रोटीन जल्दी हजम हो जाता है। इस आयु में यदि प्रोटीन की मात्रा घट गई तो जीवन शक्ति का अभाव हो जाता है। इसलिए इस अवस्था में खाद्य पदार्थों में प्रोटीन की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए।
  • गर्भावस्था में मां के साथ-साथ गर्भ में पल रहे बच्चे को भी प्रोटीन की अत्यधिक आवश्यकता होती है। प्रोटीन गर्भ में पल रहे बच्चे की शरीर के विकास में जरूरी होती है। फिर मां के स्वास्थ्य के लिए तो यह जरूरी है ही। प्रोटीन की कमी इस अवस्था में मां और गर्भ में पल रहे बच्चे के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल सकती है। अत: यह अति आवश्यक है कि गर्भावस्था में माता को प्रोटीनयुक्त खाद्य अधिक से अधिक प्रयोग कराया जाए।

  • जिस प्रकार गर्भावस्था में माता को प्रोटीन की अधिक आवश्यकता होती है। ठीक उसी प्रकार दूध पिलाने वाली माता को भी प्रोटीन की आवश्यकता होती है। इस अवस्था में प्रोटीन की कमी मां और बच्चा दोनों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती है। दूध पिलाने वाली माताओं और गर्भवती स्त्री को दोनों प्रकार के प्रोटीन देने चाहिए।
  • रोगों के बाद रोगी के शरीर की शक्ति क्षीण हो चुकी होती है। इस अवस्था में रोगी दीन-हीन व असहाय हो जाता है। रोगी के शरीर के तंतु, कोशिकाएं आदि काफी टूट-फूट चुके होते हैं अत: उन्हें नई जीवन शक्ति और मजबूती प्रदान करने की खातिर अधिकाधिक दोनों प्रकार के प्रोटीन देने चाहिए ताकि शरीर की खोई हुई शक्ति को पुन: प्राप्त कर सके। जिन लोगों को रोगों के बाद या ऑप्रेशन के बाद उचित खाद्य प्रोटीन नहीं मिलते उनके पुन: रोगी हो जाने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। रोगी का शरीर पहले ही रोग से टूट चुका होता है। उसके बाद खान-पान सही नहीं होने से शरीर की शक्ति और अधिक तेजी से नष्ट होती है और रोग दुबारा आ घेरता है।

Vitamins E deficiency, Cause of many Diseases

विटामिन `ई´ की कमी से उत्पन्न होने वाले रोग-



विटामिन `युक्त खाद्यों की तालिका-

विटामिन `´ की महत्वपूर्ण बातें-
  • विटामिन `ई´ वसा में घुलनशील होता है।
  • अंकुरित अनाज तथा शाक-भाजियों में यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
  • अंतरिक्ष यात्रियों में ऑक्सीजन की अधिकता से रक्तहीनता का दोष पैदा हो जाता है जो विटामिन `ई´ से ठीक हो जाता है।
  • विटामिन `ई´ में किसी भी प्रकार की वेदना को दूर करने का विशेष गुण रहता है।
  • शरीर में विटामिन `ई´ की कमी हो जाने से किसी भी रोग का संक्रमण जल्दी लग जाता है।
  • विटामिन `ई´ की कमी होते ही क्रमश: विटामिन `ए´ भी शरीर से नष्ट होने लगता है।

  • गेहूं के तेल में विटामिन `ई´ भरपूर रहता है।
  • सलाद, अण्डे तथा मांस आदि में विटामिन `ई´ बहुत ही कम मात्रा में पाया जाता है।
  • स्त्रियों का बांझपन शरीर में विटामिन `ई´ की कमी के कारण होता है।
  • विटामिन `ई´ को टेकोफेरोल भी कहा जाता है।
  • विटामिन `ई´ का महिलाओं के बांझपन, बार-बार गर्भ गिर जाने, बच्चा मरा हुआ पैदा होने जैसे रोगों को रोकने के लिए सफलतापूर्वक पूरे संसार में प्रयोग किया जा रहा है।
  • आग से जल जाने वाले रोगी के लिए विटामिन `ई´ ईश्वरीय वरदान कहा जाता है इसके प्रयोग से जले हुए रोगी को संक्रमण भी नहीं लगता है।

  • प्रजनन अंगों पर विटामिन `ई´ विशेष रूप से प्रभाव पैदा करता है।
  • विटामिन `ई´ पर ताप का कोई प्रभाव पैदा नहीं होता है।
  • पुरुषों की नपुंसकता का एक कारण शरीर में विटामिन ई की कमी हो जाना भी होता है।
  • बिनौले में पर्याप्त विटामिन `ई´ मौजूद रहता है।
  • शिराओं के भंयकर घाव, गैंग्रीन आदि विटामिन `ई´ के प्रयोग से समाप्त हो जाते हैं।
  • शरीर में विटामिन `ई´ पर्याप्त रहने पर विटामिन `ए´ की शरीर को कम आवश्यकता पड़ती है।

  • हार्मोंस संतुलन के लिए विटामिन `ई´ का महत्वपूर्ण योगदान है।
  • विटामिन `ई´ की कमी से थायराइड ग्लैण्ड तथा पिट्यूटरी ग्लैण्ड की क्रियाओं में बाधा उत्पन्न हो जाती है।
  • विटामिन `ई´ की कमी से स्त्री के स्तन सिकुड़ जाते हैं और छाती सपाट हो जाती है।
  • मानसिक रोगों से ग्रस्त रोगियों को विटामिन `ई´ प्रयोग कराने से लाभ होता है।
  • स्त्रियों में कामश्वासना लोप हो जाने पर विटामिन `ई´ का प्रयोग कराने से लाभ होता है।

Thursday, November 28, 2019

जबड़े की हड्डी का सड़ना (Caries or Necrosis) Homeopathic medicine

जबड़े की हड्डी का सड़ना (Caries or Necrosis)


परिचयः जबड़े की हड्डी के किसी भाग का मृत हो जाना जिसके चारों ओर का स्थान स्वस्थ रहता है, नेक्रोसिस (जबड़े की हड्डी का सड़ना) कहलाता है। यह मुख्यतः निम्न प्रकार का होता है-
1. एनेमिक नेक्रोसिस- खून की कमी से शरीर के प्रभावित भाग की रक्त आपूर्ति कम हो जाने से उस भाग में पैदा नैक्रोसिस।
2. एसेप्टिक नेक्रोसिस- संक्रमण से रहित होने वाला नैक्रोसिस।
3. चीजी नेक्रोसिस- ऐसा नेक्रोसिस जिसमें ऊतक पनीर के जैसा बन जाता है जैसाकि अक्सर क्षय रोग और सिफिलिस में देखा जाता है, किलाटी नेक्रोसिस।
4. कौगुलेशन नेक्रोसिस- ऐसा नेक्रोसिस जिसका परिगलित क्षेत्र जम जाता है, आतंची नेक्रोसिस।
6. इबोलिक नेक्रोसिस- अन्तःशल्य के परिणामस्वरूप होने वाला नेक्रोसिस।
7. फोकल नेक्रोसिस- छोटे-छोटे छितरे हुए क्षेत्रों में स्थिर नैक्रोसिस जो ज्यादा संक्रमण में देखे जाते हैं।
8. गम्मेटस नेक्रोसिस- सिफिलस के गम्मा में होने वाला नेक्रोसिस। Gummatous necrosis-
9. लिक्वीफैक्टिव नेक्रोसिस- ऊतकों के द्रवीकरण से होने वाला नेक्रोसिस।
10 मॉयस्ट नेक्रोसिस- नेक्रोसिस जिसके साथ मृत ऊतक कोमल और नम हो जाता है, आर्द नेक्रोसिस।
11. प्युट्रीफैक्टिव नेक्रोसिस- परजीवाणु विघटन के द्वारा उत्पन्न होने वाला नेक्रोसिस।
12. रेडियेशन नेक्रोसिस- विकिरण के प्रति अनावृत होने से उत्पन्न नेक्रोसिस।
13.थ्रॉम्बोटिक नेक्रोसिस- घनास्त्र या थ्रॉम्बस के बनने के कारण पैदा होने वाला नेक्रोसिस।
रोग और उसमें प्रयोग की जाने वाली औषधियां :-
1. ऐरम-ट्रिफाइलम :- जबड़े के जोड़ों में दर्द होने पर ऐरम-ट्रिफाइलम औषधि की 3 से 30 शक्ति का उपयोग करना हितकारी होता है। इसके प्रयोग से दर्द में आराम मिलता है।
2. फॉस्फोरस :- यदि किसी व्यक्ति के जबड़े के नीचे व बाएं भाग में किसी प्रकार का जख्म हो गया हो तो उसेफॉस्फोरस औषधि की 30 शक्ति का सेवन करना चाहिए।
3. क्यूप्रम-मेटैलिकम :- पूरे जबड़े में ऐंठन सा दर्द होता है या नीचे के जबड़े में दर्द होता है। जबड़े का ऐसा दर्द जो हल्का सा छू भी दें तो दर्द तेज हो जाता है। इस तरह के लक्षणों में रोगी को क्यूप्रम-मेटैलिकम औषधि की 6 या 30 शक्ति का सेवन करना चाहिए।
4. पैसीफ्लोरा :- बच्चे में दांत निकलते समय कई प्रकार के रोग होते हैं। इन रोग में जबड़े की हड्डी का सड़ना भी एक एक प्रकार का रोग है। अत: दांत निकलते समय बच्चे के जबड़े में किसी प्रकार का कष्ट हो तो पैसीफ्लोराऔषधि के मूलार्क का प्रयोग करना हितकारी होता है।
5. हेक्ला-लावा :- जबड़े की हड्डी बढ़ जाने पर हैक्ला-लावा औषधि की 3x मात्रा का उपयोग करने से जबड़े की बढ़ी हुई हड्डी सामान्य हो जाती है।
6. पेट्रोलियम :- जबड़े का अपने स्थान से हट जाना या अटक जाना आदि रोग में पेट्रोलियम औषधि की 30 या 200 शक्ति का उपयोग करना लाभदायक होता है।
7. हाइपेरिकम :- इस औषधि का प्रयोग जबड़ा अटक जाने पर करने से जबड़े का अटकना समाप्त होकर अपने सामान्य स्थिति में आ जाता है। जबड़ा अटकने पर रोगी को हाइपेरिकम औषधि की 6 शक्ति का सेवन करना चाहिए। इस औषधि की विशेष क्रिया स्नायु पर होती है। इसलिए चोट लगने के कारण स्नायु में उत्पन्न रोग में हाइपेरिकम औषधि की 6 शक्ति का प्रयोग किया जाता है।
8. साइलीशिया :- किसी कारण से जबड़े की हड्डी अटक जाना या जबड़े के नीचे की हड्डी का जख्म होना या सूज जाने पर जबड़ें के रोग में रोगी को पहले ऊपर बताए गए औषधियों में से कोई भी औषधि दें। यदि उससे लाभ न मिले तो साइलीशिया औषधि की 30 शक्ति का प्रयोग करना चाहिए।


Wednesday, November 27, 2019

Vitamins introduction, Source, Requirements, Benifits

परिचय-



शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करने के लिए विटामिनों के महत्वपूर्ण योगदान से इन्कार नहीं किया जा सकता है। शरीर के समुचित पोषण के लिए विटामिन अति आवश्यक सहायक तत्व हैं। आधुनिक काल में विटामिनों की खोज के बाद इनका प्रचलन तेजी से जोर पकड़ चुका है। सभी विटामिन जो अब तक चिकित्सा विज्ञानियों ने खोज निकाले हैं वे सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। ये हमारे भोजन में काफी कम मात्रा में होकर भी हमारे शरीर को नई जीवन शक्ति देते हैं। इनकी कमी से शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। जब विटामिनों की किसी कारणवश शरीर में पूर्ति हो पाना सम्भव नहीं होता तब यह कमी मृत्यु का कारण बन जाती है।


विटामिन ऐसे आवश्यक कार्बनिक पदार्थ हैं, जिनकी अल्प मात्राएं सामान्य चयापचय और स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। ये विटामिन शरीर में स्वत: पैदा नहीं हो सकते, इसलिए इन्हें भोजन से प्राप्त किया जाता है। इनका कृत्रिम रूप से भी उत्पादन किया जाता है।

समुचित मात्रा में विटामिन प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को ताजा भोजन ही करना चाहिए। भोजन पकाने में असावधानी बरतने, सब्जियों को काफी देर तक उबालने, इन्हें तेज रोशनी में रखने आदि से इन वस्तुओं में मौजूद विटामिन नष्ट हो जाते हैं। विटामिनों को दो वर्गो में विभजित किया गया है- वसा विलेय (soluble) और जल विलेय

वसा विलेय विटामिन-
विटामिन `ए´ (रेटिनोल), डी, ई (टेकोफेरोल) और विटामिन बी-1 (थायामिन), बी-2 (राइबोफ्लेविन), नियासीन (निकोटिनिक अम्ल), पेण्टोथेनिक अम्ल, बायोटिन, विटामिन बी-12 (साइनोकैबैलेमाइन), फोलिक अम्ल और विटामिन सी (ऐस्कॉर्बिक अम्ल) जल में विलेय विटामिन है।




कुछ आवश्यक विटामिन
विटामिन
श्रेष्ठ स्रोत
भूमिका
आर.ड़ी.ए.
विटामिन-ए
दूध, मक्खन, गहरे हरे रंग की सब्जियां शरीर पीले और हरे रंग के फल व सब्जियों में मौजूद पिग्मैंट कैरोटीन को भी विटामिन  में बदल देता है
यह ऑख के रेटिना, सरीखी शरीर की झिल्लियों, फेफड़ों के अस्तर और पाचक-तंत्र प्रणाली के लिए आवश्यक है
1 ग्राम.
थायमिन-बी1
साबुत अनाज, आटा दालें, मेवा, मटर और फलियां
यह कार्बोहाइड्रेट के ज्वलन को सुनिश्चित करता है।
1.0-1.4 मि.ग्राम
राइबोफ्लैविन-बी2
दूध, पनीर
यह ऊर्जा रिलीज और रख-रखाव के लिए सभी कोशिकाओं के लिए आवश्यक है।
1.2-1.4 मि.ग्राम
नियासीन
साबुत अनाज, आटा और एनरिच्ड अन्न
यह ऊर्जा रिलीज और रख-रखाव के लिए सभी कोशिकाओं के लिए आवश्यक होती है
13-19 मि.ग्राम
पिरीडॉक्सिन- बी6
साबुत अनाज, दूध
रक्त कोशिकाओं और तंत्रिकाओं को समुचित रूप से काम करने के लिए इसकी जरूरत होती है।
लगभग 2 मि.ग्रा
पेण्टोथेनिक अम्ल
गिरीदार फल और साबुत अनाज
ऊर्जा पैदा करने के लिए सभी कोशिकाओं को इसकी जरूरत पड़ती है।
4-7 मि.ग्रा
बायोटिन
गिरीदार फल और ताजा सब्जियां
त्वचा और परिसंचरण-तंत्र के लिए आवश्यक है
100-200 मि.ग्रा
विटामिन-बी12
दुग्धशाला उत्पाद
लाल रक्त कोशिकाओं, अस्थि मज्जा-उत्पादन का साथ-साथ तंत्रिका-तंत्र के लिए आवश्यक है।
3 मि. ग्रा
फोलिक अम्ल
ताजी सब्जियां
लाल कोशिकाओं के उत्पादन के लिए आवश्यक है।
400 मि.ग्रा
विटामिन- सी
सभी रसदार फल, टमाटर कच्ची बंदगोभी, आलू, स्ट्रॉबेरी
हड्डियों, दांत और ऊतकों के रख-रखाव के लिए आवश्यक है।
60 मि.ग्रा
विटामिन-डी
दुग्धशाला उत्पाद, बदन में धूप सेकने से कुछ एक विटामिन त्वचा में भी पैदा हो सकते है।
रक्त में कैल्सियम का स्तर बनाए रखने और हड्डियों के संवर्द्दन के लिए आवश्यक है
5-10 मि.ग्रा
विटामिन-ई
वनस्पति तेल और अनेक दूसरे खाद्य-पदार्थ
वसीय तत्वों से निपटने वाले ऊतकों तथा कोशिका झिल्ली की रचना के लिए जरूरी है।
8-10 मि.ग्रा

Tuesday, November 26, 2019

पैरों का कष्ट (Feet problem) Homeopathic medicine

पैरों का कष्ट (Feet problem)


पैरों से सम्बन्धित कई प्रकार के कष्ट होने पर उपचार :-
पैर ठण्डे होते जाना :-
इस प्रकार के लक्षण होने पर उसे दूर करने के लिए कार्बोज वेज की 30 शक्ति या सिस्टस की 30 शक्ति का उपयोग करना चाहिए और यदि पैर सुन्न हो गए हो, ऐंठन हो रही हो तो चिकित्सा करने के लिए सिकेल औषधि की 30 शक्ति की मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।

ज्यादा चलने से पैरों में दर्द होना :-
इस प्रकार के दर्द पैरों में होने पर आर्निका औषधि की 3 शक्ति हर दो घंटे में देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त एक गैलन गर्म पानी में आर्निका मूलार्क का 3.5 मिलीलीटर डालकर उसमें पैरों को डुबोकर रखने से लाभ होता है।

पैरों में दर्द होना :-
पैर भारी महसूस होना, चला भी न जाना, ऐड़ी में ऐसा दर्द होना कि मानो सूइयों पर चल रहे हो, आराम करने पर दर्द बढ़ना और हाथ-पैर हिलाने पर दर्द घटना आदि लक्षण होने पर रस टॉक्स औषधि का उपयोग करना चाहिए।

पिण्डलियों में दर्द होना :-
सुबह के समय में उठते ही पिण्डलियों में दर्द होना या रात को सोते समय पिण्डलियों में दर्द होना, ठण्ड से यह दर्द बढ़ना, सुबह घूमने-फिरने से दर्द कम होना या रात को दबाने व सेकने से चैन पड़ना। इस प्रकार के लक्षण को दूर करने के लिए क्यूप्रम 3x की मात्रा का उपयोग शाम के समय में करना चाहिए।

गिट्टे का सूजना :- 
गिट्टे सूज गए हो, उनमें दर्द हो रहा हो, सुबह के समय में पैरों में अकड़न हो, पैर भारी महसूस हो रहे हो, एड़ियों में ऐसा दर्द मानो चोट की रगड़ लग गई हो, पैर के दाएं अंगूठे और अंगुलियों में दर्द हो तो लीडम औषधि की 6 शक्ति का प्रयोग प्रति चार घंटे पर उपयोग करना चाहिए।

पैरों का सूजना :-
रोगी को ऐसा महसूस हो रहा हो कि जैसे पैर सूज गए हैं एवं अकड़ रहे हैं तो एपिस औषधि की 3x मात्रा प्रति चार घंटे में दो बार उपयोग करना चाहिए।

अंगूठों पर सूजन होना :-
अंगूठों में दर्द हो रहा हो तो कॉलोफाइलम की 1 शक्ति की प्रति मात्रा चार घंटे पर उपयोग करना चाहिए।

Monday, November 25, 2019

Tuberculosis तपेदिक-क्षयरोग (टी.बी) Homeopathic medicine

तपेदिक-क्षयरोग (टी.बी) -Tuberculosis


परिचय - टी.बी. रोग एक कीटाणु के कारण फैलता है जिसको ट्युबर्क्युलोसिस कहा जाता है। यह संक्रामक रोग होता है। इस रोग को वैसे तो अनुवांशिक रोग नहीं कहा जाता लेकिन फिर भी अगर किसी के वंश में पहले यह रोग रहा होता है तो आने वाली पीढ़ियों को भी यह रोग जल्दी पकड़ लेता है। यह कीटाणु समुन्द्र के बीच या पहाड़ों की चोटी को छोड़कर हर जगह पाया जाता है। यह कीटाणु कमजोर व्यक्तियों को बहुत जल्दी पकड़ लेता है। शरीर के किसी भी अंग में यह रोग हो सकता है लेकिन फिर भी यह ज्यादातर फेफड़ों और आंतों में ही होता है। आंतों पर इस कीटाणु का हमला फेफड़ों से निकले थूक के कारण होता है। जिन रोगियों को फेफड़े की टी.बी. होती है वे अगर अपने थूक को वापस निगल जाते हैं तो उन्हें आंतों की टी.बी. हो जाती है। इसके अलावा गले की ग्रंथियों और हडि्डयों में भी टी.बी का रोग हो सकता है।
लक्षण-
  • टी.बी. रोग के लक्षणों में रोगी को सबसे पहले हर समय थोड़ी-थोड़ी सूखी खांसी होती रहती है।
  • रोगी को होने वाली खांसी अक्सर रात को सोते समय या सुबह उठते ही शुरू हो जाती है।
  • रोगी की बहुत तेज काटता हुआ सा छाती में दर्द होता है और फिर बहुत सारा थूक निकलता है।
  • रोगी का वजन दिन पर दिन कम ही होता रहता है।
  • रोगी का शरीर बिल्कुल कमजोर सा पड़ जाता है, चेहरे का रंग पीला हो जाता है और दोपहर के समय रोगी के गालों पर कृत्रिम लाली सी आ जाती है।
  • रोगी को रोजाना बुखार आने लगता है और रात के समय बहुत ज्यादा पसीना आता है।
  • रोगी की नाड़ी बहुत तेज हो जाती है और रोग बढ़ने पर फेफड़ों से खून आ जाता है।
होमियोपैथि से रोग का उपचार
तपेदिक (टी.बी.) की आशंका (Threatened Consumption)
1. कैलकेरिया-कार्ब- अगर रोगी की प्रकृति ठण्डी हो, रोगी का मोटापा काफी तेजी से बढ़ रहा हो, रोगी दूध पीता है तो वह उसे हजम नहीं होता, रोगी को हर समय खट्टी-खट्टी डकारें आती रहती हैं, रोगी को मांस नहीं पचता हो, शरीर में बहुत ज्यादा कमजोरी आ रही हो, पूरा शरीर हर समय पसीने से भीगा रहता हो। रोगी स्त्री का मासिकस्राव रुक गया हो ऐसे लक्षणों में उसे हर 6 घंटे के बाद कैलकेरिया-कार्ब औषधि देने से लाभ मिलता है।
2. कैलकेरिया आयोडाइड- गर्म प्रकृति के रोगियों को, रोगी दूध पीता है तो उसे हजम नहीं होता, रोगी को हर समय खट्टी-खट्टी डकारें आती रहती हो, रोगी को मांस नहीं पचता हो, शरीर में बहुत ज्यादा कमजोरी आ रही हो, पूरा शरीर हर समय पसीने से भीगा रहता हो। रोगी स्त्री का मासिकस्राव रुक गया हो आदि लक्षणों के साथ-साथ अगर रोगी पतला हो रहा हो तो इन लक्षणों के आधार पर रोगी को अगर टी.बी रोग होने की आशंका हो तो उसे हर 6 घंटे के बाद कैलकेरिया आयोडाइड औषधि की 3x मात्रा का सेवन कराना अच्छा रहता है।
3. आयोडियम (आयोडम)- ऐसे स्त्री-पुरुष जो समय से पहले ही बूढ़े दिखाई देने लगते हैं, जिनको हर समय छाती में किसी तरह की परेशानी रहती है, जिसके कारण वे ज्यादा ऊंचाई पर चढ़ने में असमर्थ हो जाते हैं, गर्म कमरे में नहीं रह सकते, उनको बलगम सख्त और खून के साथ आता है। ऐसे रोगी जिन्हें भूख तो बहुत लगती है लेकिन फिर भी वह कमजोर ही रहते हैं। ऐसे लोग जल्दी-जल्दी बढ़ने के साथ शरीर से कमजोर होते रहते हैं। उन्हें हर समय सूखी खांसी रहती है। इस तरह के लक्षणों में रोगी को टी.बी रोग होने की आशंका होने पर आयोडियम औषधि की 2x मात्रा हर 6 घंटे के बाद देना लाभकारी रहता है।
4. बैसीलीनम- रोगी का बिल्कुल दुबला-पतला सा हो जाना, रोगी के कंधे झुके हुए रहना, रोगी की छाती में हर समय परेशानी रहने के साथ छाती बिल्कुल सपाट सी रहती है। रोगी हर समय थका-थका सा रहता है उसे अगर कोई काम करने को कहो तो वह उसे करता ही नहीं है। अगर रोगी को खांसी-जुकाम हो जाता है तो उसकी चिकित्सा करने से भी ठीक नहीं होती। इस तरह के लक्षणों में रोगी को टी.बी रोग की आशंका होने पर बैसीलीनम औषधि की 200 शक्ति, 1m या cm की मात्रा हर दूसरे या तीसरे सप्ताह में देना अच्छा रहता है।
टी.बी रोग की दो मुख्य औषधियां (टु इमपोर्टेन्ट रेमेर्टन फॉर टी.बी.) :-
1. कैलि-कार्ब- कैलि-कार्ब औषधि को टी.बी रोग की एक बहुत ही असरकारक और जरूरी औषधि माना जाता है। शायद टी.बी रोग का ऐसा कोई रोगी न हो जिसे इस रोग में कैलि-कार्ब दिए बिना ठीक किया गया हो। इस औषधि को बहुत सोच-समझकर दोहराना चाहिए क्योंकि यह बहुत ही प्रभावशाली औषधि होती है। यह औषधि उन रोगियों के लिए भी बहुत अच्छी रहती है जिन्हें प्लुरिसी रोग (फेफड़ों की परत में पानी भर जाना) होने के बाद टी.बी का रोग हो जाता है। रोगी की छाती में ऐसा दर्द उठता है जैसे कि किसी ने उसमें सुई घुसा दिया हो, रोगी को थूक थक्को के रूप में आता है, पैरों के तलवों पर जरा सा स्पर्श भी रोगी को कष्ट देने लगता है, रोगी का गला बैठ जाता है, सुबह के समय रोगी को बहुत तेज खांसी उठती है, जिसमें थोड़ी सी खांसी में ही बलगम निकल जाता है और उसमें थोड़ा सा खून भी मिला होता है। इस रोग के लक्षण सुबह के 3-4 बजे तेज होते हैं। रोगी की आंख की पलक के ऊपर सूजन आना भी टी.बी. रोग का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। इन सब टी.बी. रोग के लक्षणों में कैलि-कार्ब औषधि रोगी को जीवनदान देने का काम करती है।
2. आर्सेनिक-आयोडियम- आर्सेनिक आयोडियम औषधि हर प्रकार के टी.बी रोग में बहुत ही खास भूमिका निभाती है। रोगी को ठण्ड लगने के कारण जुकाम हो जाता है, वजन दिन पर दिन कम ही होता रहता है। ऐसे रोगी जिनको अभी-अभी टी.बी रोग हुआ ही हो, दोपहर के समय रोगी का बुखार तेज हो जाता है, पसीना बहुत ही ज्यादा आता हो, शरीर कमजोर होता जाता है। इस तरह के लक्षणों में आर्सेनिक आयोडियम बहुत ही असरकारक रहती है। रोगी को टी.बी रोग में इस औषधि की 3x की 0,.26 ग्राम की मात्रा रोजाना दिन में 3 बार देनी चाहिए। कभी-कभी इस औषधि की उल्टी प्रतिक्रिया होने से रोगी के पेट में दर्द भी हो सकता है और दस्त आने लगते हैं। ऐसी हालत में रोगी को यह औषधि देना बन्द कर देना चाहिए।
फेफड़ों की टी.बी. तथा खांसी-
टी.बी. रोग सबसे पहले रोगी के फेफड़ों पर हमला करता है। रोगी को हर समय थोड़ी-थोड़ी सी खांसी होती रहती है। इस तरह की खांसी कभी-कभी तर भी हो जाती है और रोगी का बलगम अपने आप ही निकल जाता है। इस बलगम को कभी-कभी रोगी पेट में भी निगल जाता है। जिससे रोगी को आंतों की टी.बी. हो जाती है।
आंतों की टी.बी की मुख्य औषधियां इस प्रकार है।
1. फास्फोरस- फास्फोरस औषधि को टी.बी रोग की एक बहुत ही असरकारक औषधि माना जाता है। इस औषधि का फेफड़ों और हडि्डयों पर बहुत ही अच्छा असर होता है। जिस समय टी.बी. रोग की शुरुआत ही हुई हो उस समय यह औषधि देना अच्छा रहता है। रोगी की छाती सिकुड़ सी जाती है। रोगी का शरीर बिल्कुल दुबला-पतला सा हो जाता है। रोगी को ठण्ड लगकर छाती में बैठ जाती है जिसके कारण उसकी छाती में घड़घड़ाहट सी होती रहती है, बलगम छाती में चिपका रहता है, रोगी को खांसते-खांसते कंपकंपी सी होने लगती है। रोगी की छाती और गर्दन सूख जाती है। रोगी की खांसी बढ़ने पर टी.बी. का रोग बन जाती है। रोगी को तेज बुखार होने लगता है, रात को पसीना बहुत ज्यादा आता है, दोपहर के समय बुखार तेज हो जाता है जो आधी रात तक बना रहता है। ऐसे में फॉसफोरस औषधि का सेवन अच्छा रहता है। लेकिन रोगी को यह औषधि सिर्फ टी.बी. रोग की शुरुआत में ही देनी चाहिए। जब टी.बी. के सभी लक्षण रोगी में हो तो इस औषधि की 30 से नीचे और 30 से ऊपर की शक्ति रोगी को नहीं देनी चाहिए।
2. लाइकोपोडियम- ऐसे रोगी जिनको न्युमोनिया या सांस की नली का रोग होने पर अगर रोगी पूरी तरह से ठीक नहीं हो पाता तथा उनके फेफड़ों में सूजन आ जाती है। यह सूजन ही बाद में टी.बी का रोग बन जाती है। रोगी के फेफड़े का बहुत ज्यादा भाग रोगग्रस्त हो जाना, रोगी को कब्ज हो जाना, पेशाब का बहुत ज्यादा गाढ़ा सा आना आदि लक्षणों में लाइकोपोडियम औषधि की 30 शक्ति का प्रयोग अच्छा रहता है।
3. हिपर-सल्फ- अगर रोगी का फेफड़ा काफी सख्त पड़ जाता है, छाती में बलगम की घड़घड़ाहट सी होती रहती है, रोगी को खांसी के साथ बहुत ज्यादा मात्रा में पीला सा बलगम निकलता है। टी.बी रोग के सारे लक्षण रात को बढ़ जाने आदि में रोगी को हर 2 घंटे के बाद हिपर सल्फ की 6 शक्ति देना लाभकारी रहता है।
4. ब्रायोनिया- अगर रोगी को सुबह-सुबह बहुत ज्यादा खांसी उठती है, खांसते-खांसते रोगी की छाती में काटने जैसा दर्द होता है, रोगी के कंधों के बीच के भाग में भी दर्द होने लगता है तो उस समय रोगी को ब्रायोनिया औषधि की 30 शक्ति देना लाभकारी रहता है।
5. ड्रौसेरा- अगर रोगी को खांसी पड़ जाती है या जो कुछ भी रोगी ने खाया-पिया होता है वह खांसते-खांसते बलगम के साथ बाहर निकल जाता है। इस तरह के टी.बी रोग के लक्षणों में रोगी को ड्रौसेरा औषधि की 12 शक्ति देने से लाभ मिलता है।
6. स्टैनम- रोगी को दिन में आने वाले थूक का स्वाद मीठा सा होना, उसकी छाती बिल्कुल सपाट सी हो तो रोगी को स्टैनम औषधि की 30 शक्ति का सेवन कराना अच्छा रहता है।
7. कार्बो-एनीमैलिस- किसी रोगी को फेफड़ों की टी.बी. की आखिरी दशा में जब खांसी उठती है, रोगी का गला बन्द सा हो जाता है, खांसते-खांसते रोगी का पूरा शरीर कांपने लगता है, रोगी को पीब जैसा बदबूदार थूक निकलता है और रोगी खांसते-खांसते हांफने लगता है। टी.बी. रोग के इस तरह के लक्षणों में रोगी को कार्बो-एनीमैलिस औषधि की 30 शक्ति देनी चाहिए।
ग्रंथियों और हडि्डयों की टी.बी.-
8. ड्रौसरा- ग्रन्थियों तथा हडि्डयों की टी.बी. होने पर सबसे ज्यादा ड्रौसेरा औषधि का प्रयोग किया जाता है। टी.बी. रोग में अगर गले की ग्रंथियां न पका हो तो इस औषधि के सेवन से होने वाले घाव का छेद बहुत छोटा सा होता है, पुरानी पकी हुई ग्रन्थियां बहुत छोटी होती चली जाती है और ठीक हो जाती है। इस औषधि के सेवन से रोगी का स्वास्थ्य ठीक होने लगता है, रोगी की सेहत पहले से अच्छी हो जाती है, चेहरे पर चमक आ जाती है। जिन व्यक्तियों को पुराना आनुवांशिक टी.बी. रोग चला आ रहा होता है उनको जोड़ों और हडि्डयों में होने वाले दर्द तथा दूसरे रोगों में भी यह औषधि लाभदायक रहती है। चाहे उन्हें टी.बी. रोग हो ही नहीं। इस औषधि की 30 शक्ति की सिर्फ एक मात्रा ही देनी चाहिए। इसे बार-बार नहीं दोहराना चाहिए।
9. साइलीशिया- साइलीशिया औषधि गले की सख्त ग्रन्थियों की टी.बी. में लाभदायक रहती है। रोगी के पैरों में बदबूदार पसीना आने पर, सोते समय रोगी के सिर पर बहुत ज्यादा पसीना आता है। रोगी बहुत ज्यादा डरपोक प्रकृति का हो जाता है, उसका आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है। रोगी को नमीदार ठण्ड पसन्द नहीं आती वह सिर्फ खुश्क ठंण्ड पसन्द करता है, लेकिन यह रोगी शीत प्रकृति का ही होता है। इस प्रकृति के साथ अगर रोगी को हडि्डयों या ग्रन्थियों की टी.बी. होती है तो यह औषधि उसे ठीक कर देती है। रोगी को यह याद रखना चाहिए कि यह औषधि बहुत ही तेज होती है।
10. सिम्फाइटम- सिम्फाइटम औषधि अस्थिभंग हडि्डयों का टूटना में बहुत ही असरकारक मानी जाती है। हडि्डयों की टी.बी. में जख्म हडि्डयों के अन्दर पहुंच जाता है उस समय यह औषधि बहुत लाभ करती है। इसके अलावा यह औषधि टूटी हडि्डयों को जोड़ने में भी मदद करती है। अगर टी.बी. रोग में रोगी की टांग या हाथ की हड्डी काटनी पड़े और रोगी को हड्डी में दर्द लगातार बना रहे तो इस औषधि का सेवन अच्छा रहता है। इस औषधि की 30 या 200 शक्ति रोगी को दी जा सकती है। इसी के साथ रोगी को इसका मूलार्क भी दिया जा सकता है।
11. कैंलकेरिया कार्ब- कैलकेरिया औषधि की शरीर की हर ग्रन्थि पर असर पड़ता है। अगर रोगी की और औषधि की प्रकृति एक ही होती है तो यह औषधि ग्रन्थियों या हडि्डयों की टी.बी में भी काम आती है। रोगी दिखने में तो हष्ट-पुष्ट लगता है लेकिन असल में अन्दर से बहुत कमजोर हो जाता है, रोगी का सिर बहुत बड़ा होता है, रोगी के सोते समय सिर में पसीना आने के कारण पूरा तकिया भीग जाता है। रोगी को बिल्कुल भी ठण्ड बर्दाश्त नहीं होती, उसके शरीर से खट्टी बदबू आती है। ऐसे रोगियों के आंतों में टी.बी., ग्रंथियों में टी.बी तथा हडि्डयों की टी.बी. में यह औषधि बहुत लाभदायक रहती है।
12. फास्फोरस- माचिस बनाने वाले व्यक्तियों को होने वाली टी.बी. खास करके हडि्डयों की टी.बी. में फास्फोरस औषधि प्रयोग में लाई जाती है। अगर होम्योपैथीक की नज़र से देखा जाए तो एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में जो औषधि जो रोग पैदा करती है रोगी में उस लक्षण के होने पर वह औषधि उस रोग को दूर करती है। इसी कारण से हडि्डयों तथा ग्रंथियों की टी.बी. में यह औषधि बहुत असरकारक साबित होती है। औषधि का सेवन करने से पहले या लेने से पहले औषधि की प्रकृति का जानना बहुत जरूरी है। फास्फोरस औषधि की प्रकृति का रोगी बहुत ज्यादा कमजोर होता है, लंबाई में जल्दी-जल्दी बढ़ता है, रोगी को हर समय ठण्डा पानी पीने की इच्छा होती रहती है रोगी का मन नमक खाने का करता है, उसे अकेला रहने से डर लगने लगता है, अंधेरे से डरने लगता है, हर समय उदास सा रहता है, रोगी का मन किसी से बात करने का या मिलने-जुलने का नहीं करता। औषधि की इस प्रकृति के साथ अगर टी.बी. रोग के लक्षण भी ऐसे हो तो रोगी को यह औषधि देना बहुत अच्छा रहता है।
13. आयोडियम- आयोडियम औषधि भी ग्रन्थियों के सख्त पड़ जाने पर, उनके सूज जाने पर, बड़ा हो जाने पर लाभ करती है। रोगी के शरीर की सारी ग्रन्थियों का बढ़ जाना, स्तनों का सूख जाना, रोगी का बहुत ज्यादा परेशान हो जाना, हर समय बेचैन सा रहना, रोगी चाहता है कि वो हर समय कुछ ना कुछ काम करता रहे नहीं तो खाली रहने से उसकी परेशानी बढ़ सकती है। रोगी को बहुत ज्यादा भूख लगती है जिसके कारण रोगी बहुत कुछ खाता रहता है लेकिन फिर भी वो कमजोर सा ही नजर आता है। इस तरह के लक्षणों में आयोडियम औषधि की 2x मात्रा बहुत प्रभावशाली रहती है।
14. बैराइटा-कार्ब- ऐसे बच्चे जिनका शारीरिक विकास सही से नही हो पाता, उनका कद छोटा रह जाता है, ऐसे बच्चे उम्र होने के बाद भी दिमाग में छोटे बच्चों जैसे ही होते है, किसी भी काम को करने में सबसे पीछे रहते है, दूसरों के सामने जाने में झिझकते है, उनके पैरों में बदबूदार पसीना आता है और ठण्ड से जिनका रोग बढ़ जाता है, हडि्डयों में किसी चीज के द्वारा छेद करने के जैसा दर्द होता है, टांगों और हाथों की हडि्डयों में दर्द होने लगता है, ग्रन्थियां सूज जाती है, कभी-कभी ग्रन्थियों का फोड़ा बन जाता है तथा उनमे मवाद पड़ जाती है। ग्रन्थियों और हडि्डयों के ऐसे टी.बी रोग के ऐसे लक्षणों में रोगी को बैराइटा-कार्ब औषधि की 30 शक्ति देना उपयोगी रहता है।
15. सल्फर- बच्चों की ग्रंथियों की सूजन तथा हडि्डयों की टी.बी. में सल्फर औषधि बहुत लाभदायक रहती है। बच्चा बिल्कुल सूख जाता है, उसके अन्दर बचपन में ही बूढ़ों जैसे लक्षण नज़र आने लगते है, रोगी को हर समय भूख लगती है, जब भी रोगी को कुछ खाने के लिए दिया जाता है तो वो उसको खाने के लिए ऐसे लपकता है जैसे कि वो कितने दिनों से भूखा हो। इस तरह के लक्षण वाले रोगी को इस औषधि की 30 या 200 शक्ति देना लाभकारी रहता है।
16. ट्युबर्क्युलीनम- ट्युबर्क्युलीनम औषधि को टी.बी. रोग में एक बहुत ही गूढ़ क्रिया करने वाली औषधि मानी जाती है। जिन रोगियों के पहले खानदान में किसी को भी टी.बी. रोग हुआ हो और उनमे ग्रंथियों आदि के टी.बी. के लक्षण भी हो जाए, रोगी एक जगह पर आराम से बैठ नहीं सकता, हर समय घूमता-फिरता रहता है, रोगी बहुत ज्यादा थका-मान्दा, कमजोर होता चला जाता है, उसके शरीर पर मांस नही रहता, हर समय भूख-भूख चिल्लाता रहता है, बन्द कमरे में परेशान हो जाता है, उसका मन हर समय खुली हवा में रहने का करता है। इस तरह के ग्रंथियों की टी.बी. के लक्षणों में ट्युबर्क्युलीनम औषधि की 200 शक्ति या 1m मात्रा का सेवन लाभकारी रहता है।
टी.बी. रोग में मुंह से खून आना :-
1. फेरम-ऐसेटिकम- जब टी.बी. के रोगी को मुंह से बहुत ज्यादा खून आता हो लेकिन छाती की जांच करवाने पर कुछ भी नहीं निकलता कि आखिर आ क्यों रहा है। रोगी की ऐसी हालत में जब तक खून आए तब तक उसे हर 10-10 मिनट के बाद फेरम-ऐसेटिकम औषधि की 2x मात्रा तब तक देते रहे जब तक कि खून बन्द ना हो जाए। इस रोग को रोकने के लिए हर 8-8 घंटे के बाद रोगी को यह औषधि देते रहना चाहिए।
2. ऐकोनाइट- जब रोगी को ऐसा महसूस होता है कि उसकी छाती में खून जमा हो गया है, त्वचा सूख सी रही है, बुखार आ रहा है, रोगी के द्वारा जरा सा खखार लेने पर ही छाती से खून आ जाता है, रोगी हर समय बेचैन सा रहता है, उसे ऐसा लगता है कि अब उसका आखिरी समय आ गया है। इस तरह के लक्षणों में रोगी को ऐकोनाइट औषधि की 3 शक्ति देने से आराम पड़ जाता है।
3. फास्फोरस- अगर रोगी को खांसी के साथ हर बार थोड़ा-थोड़ा सा खून आता रहता है तो उस समय रोगी को फास्फोरस औषधि की 3 शक्ति देना लाभदायक होती है।
4. ऐकेलिफ इण्डिका- अगर रोगी की छाती में लगातार दर्द रहता है। सुबह के समय चमकीला, दोपहर को काला और थक्केदार खून आता हो, सूखी खांसी आती हो, खांसी के बाद छाती से खून आता हो तो रोगी को ऐकेलिफ इण्डिका औषधि की 3 या 6 शक्ति देने से लाभ मिलता है।
5. मिलेफोलियम- अगर रोगी को बिना खांसी हुए तेज रंग का झागदार खून आता हो तो उसे हर 15 मिनट के बाद मिलेफोलियम औषधि की 2x मात्रा या 30 शक्ति देनी चाहिए।
6. हेमेमेलिस- रोगी की छाती से काला, थक्केदार खून आने पर हर 15-15 मिनट के बाद हेमेमेलिस औषधि का रस या 3 शक्ति देना अच्छा रहता है।
7. इपिकाक- अगर रोगी को खांसी के साथ काला थक्केदार खून आता है और इसी के साथ उसकी छाती में खुरखुरी सी होती है और उसका जी मिचलातारहता है। ऐसे लक्षणों में रोगी को इपिकाक की 3 शक्ति का सेवन कराना उचित रहता है।
टी.बी. का बुखार (हेट्रिक फीवर) :-
1. आर्सेनिक आयोडाइड- रोगी को टी.बी. का बुखार होने पर हर 1 धंटे के बाद आर्सेनिक आयोडाइड औषधि की 3x मात्रा देने से बुखार काबू में रहता है। इस औषधि को रोगी को खाली पेट नहीं देनी चाहिए बल्कि भोजन कराने के बाद देनी चाहिए।
2. बैप्टीशिया- अगर रोगी का टी.बी. का बुखार टॉयफाइड में बदल जाता है, बुखार रोजाना थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ता रहता है, शाम को बुखार सुबह के बुखार से 1 डिग्री ज्यादा रहता है। अगर 10 दिन तक इसी तरह से बुखार एक-एक डिग्री तक बढ़ता रहता है तो इस प्रकार के टॉयफाइड के लक्षण होने पर हर 2 घंटे के बाद बैप्टीशिया औषधि की 1 शक्ति का सेवन अच्छा रहता है।
3. ऐकोनाइट- यदि टी.बी. के बुखार में रोगी की त्वचा सूख सी जाती है, रोगी को बेचैनी सी रहती है, रोगी को परेशान करने वाली खांसी उठती है। इस तरह के लक्षणों में रोगी को हर एक-एक घंटे के बाद ऐकोनाइट औषधि की 3 शक्ति देनी चाहिए।
टी.बी. रोग में बहुत ज्यादा पसीना आना-
1. पाइलोकारपस- वैसे तो लक्षणों के अनुसार जो औषधि रोग के दूसरे लक्षणों को ठीक करती है वह ही पसीने को भी दूर कर देती है। लेकिन अगर पसीना खुद ही रोग का मुख्य लक्षण प्रतीत होता है तो ऐसे रोगी को पाइलोकारपस औषधि की 3x की मात्रा हर 1 धंटे के बाद देने से लाभ मिलता है।
विभिन्न प्रकार के टी.बी. रोग में विभिन्न प्रकार की होम्योपैथी औषधियां-
1. जैतून का तेल- टी.बी. के रोगी को हर 2 घंटे के बाद लगभग 14 मिलीलीटर से 28 मिलीलीटर जैतून का तेल सेवन कराने से उसके शरीर का वजन कुछ ही समय में बढ़ने लगता है। अगर रोगी कोई दूसरी औषधि सेवन करता है तो भी इस तेल का सेवन किया जा सकता है। अगर इस तेल में थोड़ा सानमक मिलाकर सेवन किया जाए तो यह शरीर की पाचन क्रिया को भी तेज करता है।
2. प्याज- टी.बी. रोग में काफी चिकित्सकों के अनुसार प्याज का रस या कच्चे प्याज का सेवन लाभकारी रहता है। अगर टी.बी. का रोगी कच्चा प्याज ना खा सकता हो तो उसे प्याज को छोंककर खिलाया जा सकता है। इसके अलावा लहसुन को काटकर सूंघने से भी टी.बी. के रोग में लाभ मिलता है।
3. जैबोरेण्डी- टी.बी. के रोग में रोगी को बहुत ज्यादा पसीना आता है तो उसे जैबोरेण्डी औषधि की 2x मात्रा देना लाभकारी रहता है।
4. हाइड्रैस्टिस- यदि टी.बी. के रोग में रोगी को भोजन देखते ही जी खराब हो जाता है (अरुचि) का लक्षण नजर आता है तो ऐसे में रोगी को रोजाना 3 बार खुराक 3 बूंद सेवन कराने से लाभ मिलता है।
परहेज-
  • टी.बी. के रोगी को पिण्ड खजूर या बक्स खजूर खिलाने चाहिए।
  • बकरी का दूध, गाय का दूध, घी, मक्खन आदि टी.बी. रोग में लाभ करते हैं।
  • टी.बी. के रोगी को छोटी मछली या बकरे के मांस का शोरबा भी दिया जा सकता है।
  • सूजी की रोटी, मूंग, केले का फूल, परवल आदि टी.बी. के रोगी को दिए जा सकते हैं।
  • टी.बी. के रोगी को ओस या सर्दी से बचाकर ही रहना चाहिए।
  • रोगी को रात में ज्यादा देर तक जागना और बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी चाहिए।
  • टी.बी. के रोगी को स्त्री के साथ संभोग नहीं करना चाहिए।
  • जिस कमरे में टी.बी. का रोगी रहता हो वहां के कमरे की खिड़कियां और दरवाजे हमेशा खुले रहने चाहिए।
सावधानी-
  • टी.बी. के रोगी के भोजन करने के बर्तन, कपड़े, बिस्तर आदि अलग ही रखने चाहिए।
  • टी.बी. के रोगी का मुंह बिल्कुल नहीं चूमना चाहिए।
  • जहां तक हो सके टी.बी. के रोगी के पास हमेशा मुंह पर रूमाल आदि रखकर जाना चाहिए क्योंकि टी.बी. के कीटाणु सांस के द्वारा स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पहुंच सकते हैं।
  • छोटे बच्चों को टी.बी. के रोगी से दूर ही रखना चाहिए क्योंकि टी.बी. के कीटाणु छोटे बच्चों पर बहुत जल्दी आक्रमण करते हैं।


आरक्त-ज्वर (Scarlet) homeopathic medicine

आरक्त-ज्वर (Scarlet)


परिचय : खसरे तथा चेचक की अपेक्षा आरक्त-ज्वर अधिक होता है। यह भी इन रोगों की तरह ही फैलने वाला रोग है। इस रोग के होने पर खुजली तथा जख्म हो जाता है। छोटे बच्चों को यह रोग अधिक होता है, यह बीमारी स्टेपटो कोसि नामक जीवाणु के कारण अधिक होती है। हवा, दूध आदि चीजों का सेवन करने से यह रोग होता है। जब यह रोग किसी व्यक्ति को होता है तो सबसे पहले रोगी को ठण्ड लगती है फिर इसके बाद उल्टी होती है, कभी-कभी बेहोशी भी आ जाती है, बुखार एक दो दिन में 104-105 डिग्री तक पहुंच जाता है। यह बुखार तीन से चार दिन तक बना रहता है, फिर धीरे-धीरे उतरने लगता है, उतरने में सात से दस दिन लग जाते हैं, रोगी के गले की ग्रंथियां सूज जाती हैं, किसी भी चीज को निगलने में कठिनाई होती है, जीभ पर सफेद लेकिन उस पर लाल-लाल दाग पड़ जाते हैं, रोगी की भूख मर जाती है, कब्ज भी हो जाती है, पेशाब कम आता है, रोग के पहले दिन के अन्त में या दूसरे दिन चेहरे, गर्दन तथा छाती पर चमकीले लाल दाने हो जाते हैं, ये दाने तुरंत ही शरीर पर फैल जाते हैं, जिस क्रम में ये आते हैं उसी क्रम में ये पपड़ियां बनकर उतरती हैं।

लक्षण :
आरक्त-ज्वर होने पर रोगी को अधिक ठण्ड लगती है, प्यास अधिक लगती है, सिर में दर्द होता है, उल्टियां आती हैं तथा गले में जख्म हो जाता है। 24 घण्टे के अंदर ही शरीर पर लाल रंग के खुजली भरे दाने हो जाते हैं, दाने पहले कंधे और छाती पर और देखते-देखते पूरे शरीर पर फैल जाते हैं। सिर में तेज दर्द होता है, जीभ पर पहले मैल जम जाती है, दाने के आस-पास का भाग लाल हो जाता है, जीभ पर कांटेदार लाल रंग के और उभरे हुए घाव हो जाते हैं। चार से पांच दिनों तक यह बुखार रहने के बाद, शरीर का ताप कम होने लगता है, दानों की लाली और लम्बाई-चौड़ाई भी घटने लगती है और नवें दिन दानें भूसी की तरह झड़ने लगती हैं। यह रोग दो हफ्तों से ज्यादा कभी भी नहीं रहता है।
खसरा और आरक्त ज्वर में अंतर :
खसरे ज्वर से पीड़ित रोगी में सर्दी के लक्षण जैसे- नाक, आंखों से पानी गिरना, छींके आना आदि होते हैं जबकि आरक्त ज्वर में सर्दी के लक्षण ज्यादा नहीं रहते, लेकिन शरीर गर्म और गले में जख्म रहता है। तीन-चार दिन बुखार होने के बाद खसरा निकलता है, लेकिन आरक्त ज्वर में पहले दिन में सारा शरीर लाल हो जाता है।
आरक्त ज्वर तीन प्रकार का होता है :
1. सरल ज्वर:
इस रोग में रोगी के शरीर पर निकलने वाले लाल दाने होते हैं, गला लाल रहता है लेकिन गले में घाव नहीं होता है। अच्छी तरह से उपचार न होने पर भी यह रोग ठीक हो जाता है। इस रोग का उपचार करने के लिए बेलेडोना की 3 शक्ति, एकोनाइट की 3X, सल्फर की 30 या आर्सेनिक 3X मात्रा औषधियों का प्रयोग कर सकते हैं।
2. गले में जख्म वाला आरक्त ज्वर (एन्जिनोइड) :
इस रोग में गला लाल हो जाता है और उसमें घाव हो जाता है, कंधा फूला हुआ रहता है। यह खतरनाक रोग है, इस रोग से पीड़ित रोगी का ठण्ड के दिनों में ठीक से उपचार न करने पर मृत्यु भी हो सकती है। इस रोग को ठीक करने के लिए एपिस की 3 शक्ति, बेलेडोना की 3 शक्ति, मर्क-बिन की 3 शक्ति का विचूर्ण, क्रोटेलस की 3 शक्ति या ऐचिनेशिया की θ मात्रा का उपयोग करना चाहिए।
3. सांघातिक :
इस प्रकार के बुखार होने पर रोगी को तेज बुखार के साथ में अधिक ठण्ड लगती है, शरीर का ताप अस्वाभाविक होता है, रोगी अधिक रोता और चिल्लाता रहता है, रोगी व्यक्ति को बेहोशी भी होने लगती है लेकिन शरीर पर दाने दिखाई नहीं पड़ते हैं, यदि दिखाई देते भी हैं तो लाल न होकर काले रंग के दिखाई पड़ते हैं। कितनी ही बार तो दाने निकलने से पहले ही रोगी की मृत्यु हो जाती है। इस रोग को ठीक करने के लिए 1X, क्यूप्रम ऐसेटिकमकी 3X, आर्सेनिक की 3X मात्रा या एसिडि-म्यूर की 6 शक्ति औषधियों का प्रयोग किया जाता है।
विभिन्न औषधियों से चिकित्सा-
1. मर्क-कोर- आरक्त ज्वर होने के साथ ही गले की गांठे सूजी हो, गले में जख्म हो, बहुत अधिक लार गिर रहा हो, सांस से बदबू आ रही हो तथा शरीर सुस्त हो तो इस औषधि की 3 शक्ति की मात्रा का उपयोग लाभकारी है। इस रोग के साथ ही यदि गुर्दा भी रोग ग्रस्त हो तो मर्क-कोर औषधि से रोग को ठीक करना चाहिए।
2. बेलेडोना-
  1. आरक्त ज्वर को ठीक करने के लिए बेलेडोना की 1X की मात्रा प्रतिदिन सेवन करना चाहिए जब तक की रोग ठीक न हो जाए।
  2. बुखार होने के साथ ही गले में घाव होना, शरीर पर लाल रंग के दाने निकलना, इस प्रकार के लक्षण होने के साथ ही रोगी रोता और चिल्लाता रहता है। इस आरक्त ज्वर में बेलेडोना औषधि की 30 शक्ति की मात्रा का उपयोग लाभकारी है जिसके फलस्वरूप यह रोग ठीक हो जाता है। उपचार करने के लिए इस औषधि की 3 शक्ति की 20 बूंद पानी भरे एक गिलास में डाल लें। इसे एक चम्मच सुबह-शाम सेवन करना चाहिए। यह औषधि आरक्त-ज्वर को ठीक करने में इतनी ही प्रभावशाली है जितनी यह उसके परिणाम से होने वाले लक्षणों को दूर करने में प्रभावशाली है। इस ज्वर के कारण शरीर पर जख्म हो जाए और बेलाडोना औषधि से वे ठीक न हो रहे हो तब कैमोमिला औषधि का सेवन करने से जख्म ठीक हो जाता है। इस रोग को ठीक होने के बाद जो खांसी रह जाती है वह भी कैमोमिला औषधि से चली जाती है।
  3. रोगी का चेहरा लाल, गर्म, त्वचा चमकदार, तेज गर्म, रोगी का शरीर इतना गर्म होता है कि छूने से हाथ जलता है, दाने एकसार होते हैं, दाने बिल्कुल लाल, होंठ, मुंह, गला, जीभ लाल, आंखें लाल, खुश्क और जलते हुए, जीभ का रंग स्ट्रॉबेरी जैसा हो जाता है, तेज बुखार रहता है, गले में दर्द होता है, खांसी आती है, सिर में दर्द होता है, शरीर के अंगों में झटके लगते हैं तथा कभी-कभी तो रोगी रोने-चिल्लाने लगता है आदि प्रकार के लक्षण होने पर बेलाडोना औषधि से उपचार करना चाहिए।
  4. आरक्त-ज्वर को ठीक करने के लिए एपिस औषधि का भी उपयोग किया जा सकता है लेकिन इन दोनों औषधियों में अंतर इतना है कि एपिस औषधि का उपयोग उन रोगियों पर किया जाता है जो गर्म-प्रकृति वाले होते हैं, ठण्ड पसन्द करते हैं, कपड़ा रखना पसन्द नहीं होता है, प्यास नहीं लगती है और बेलाडोना औषधि का उपयोग उन रोगियों पर किया जाता है जो गर्मी पसन्द करते हैं, प्यास होती है।
3. फाइटोलैक्का- आरक्त ज्वर होने के साथ ही गले में घाव दिखाई दे रहे हो तो इस औषधि की 1X मात्रा का प्रयोग करने से लाभ मिलता है।
4. ऐकोनाइट- आरक्त ज्वर से पीड़ित रोगी को बुखार होने की पहली अवस्था में या हृदय में जलन हो तो उस समय में इस औषधि की 3X मात्रा का उपयोग करने से लाभ मिलता है।
5. आर्सेनिक- आरक्त ज्वर होने के साथ ही रोगी के शरीर पर दाने अच्छी तरह न निकलें या निकलते ही ठीक हो जाए, शरीर ठण्डा रहें, शरीर सुस्त पड़ गया हो, बेचैनी अधिक हो रही हो, प्यास लग रही हो, सूजन हो, शरीर में कभी ऐंठन होती है तो कभी नहीं तथा मूत्र-ग्रंथि में जलन हो रही हो तो इस आर्सेनिक औषधि की ग 3X मात्रा का उपयोग लाभदायक है।
6. एपिस- आरक्त ज्वर से पीड़ित रोगी को तेज बुखार हो, नींद ठीक से न आ रही हो, गला फूला हुआ हो, डंक लगने जैसा दर्द, जीभ लाल पड़ गई हो, जीभ में फफोले पड़ गए हो, दाने होने के साथ ही खुजली हो रही हो और सूजन भी हो गई हो, हृदय में जलन हो रही हो, मूत्र ग्रंथि में जलन हो रही हो तथा गले की शिकायत बहुत अधिक बढ़ जाती है, रोगी गर्मी को सहन न कर सके, कपड़ा उतार फेंके, ठण्ड कमरा पंसद करे तो रोग की इस अवस्था में इस औषधि की 6 शक्ति की मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।
7. एइलैन्थस- नींद न आना, बेहोशीपन महसूस होना, सिर में दर्द होना, चेहरा गर्म और लाल होना, गला फूला हुआ रहता है, नाक से खाल निकाल देने वाला पानी बहता है, दाने काले या नीले होते हैं, तेज उल्टियां आना। इस प्रकार के लक्षण यदि आरक्त ज्वर में हैं तो रोगी का उपचार करने के लिए इस औषधि की 1X मात्रा का उपयोग फायदेमंद है।
8. सल्फर- आरक्त ज्वर से पीड़ित रोगी के शरीर पर लाल चमकीले रंग का दाना हो तथा उसके शरीर पर जलन होने के साथ ही खुजली हो रही हो तो इस औषधि की 30 शक्ति की मात्रा का उपयोग करें।
9. क्यूप्रम-ऐसेट- दानों का बैठ जाना तथा शरीर पर पड़े दाने ऐसे सड़ जाते हैं कि मानो कोढ़ हो गया हो, दानों में खुजली न होना, उल्टी आना, शरीर में ऐंठन होना तथा तेज बुखार रहना। इस प्रकार के लक्षण आरक्त ज्वर में हो तथा इसके साथ ही इस रोग का असर सिर पर हो रहा हो तो इस औषधि की 2X मात्रा का उपयोग लाभदायक है। तेज बुखार होने पर सिर पर गीला कपड़ा रखना चाहिए।
10. कोटेलस- आरक्त ज्वर से पीड़ित रोगी के गले में जख्म होने के साथ ही गले के बाहर की ग्रंथियां सूज जाए तथा कंधे की ग्रंथियां फूली हुई हो तो कोटेलस औषधि की 3 से 6 शक्ति की मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।
11. एसिड-म्यूर- आरक्त ज्वर होने के साथ ही कान से पीब बह रहा हो या कान से कम सुनाई पड़ रहा हो तो इस औषधि की 2X मात्रा का उपयोग करना चाहिए।
12. हिपर- जैसे ही आरक्त ज्वर हो उसी समय इस औषधि की 30 शक्ति की मात्रा का प्रयोग करने से लाभ मिलता है। रोगी व्यक्ति के शरीर में सूजन होने के साथ ही मूत्र-दोष हो, वात-रोग हो या हृदय से सम्बंधित कोई रोग हो तो भी इस औषधि से उपचार कर सकते हैं।
13. इचिनेशिया- शरीर के खून का विषैला होना, गले में दर्द होना या गला बैठ जाना, ग्रंथियां बढ़ना या उनमें पीब आ जाना इस प्रकार के लक्षण यदि आरक्त ज्वर से पीड़ित रोगी में है तो उसके इस रोग को ठीक करने के लिए इचिनेशिया औषधि का प्रयोग करें।
14. एरम ट्रिफाइलम-  आरक्त ज्वर होने के साथ ही गले में घाव हो जाए, उसके साथ नाक से लगने वाला स्राव हो तथा नथुने पर दर्द हो तो इस औषधि की 3 से 30 शक्ति की मात्रा का प्रयोग करने से लाभ मिलता है।
15. स्कारलेटीन- इस औषधि की 30 शक्ति का उपयोग तीनों प्रकार के आरक्त ज्वर को ठीक करने के लिए अन्य औषधियों के बीच-बीच में उपयोग में लेना चाहिए।
16. अमोनिया कार्ब- घातक आरक्त ज्वर होने के साथ ही रोगी के शरीर का खून विषैला हो जाए, सांस भारी हो जाए, चेहरा फूल जाए, दाने काले पड़ जाए, गले में पीब की बदबू आए तो इस प्रकार के लक्षणों से पीड़ित रोगी के रोग को ठीक करने के लिए अमोनिया कार्ब औषधि की 6 शक्ति का उपयोग करना चाहिए।
17. ऐलैनथस- आरक्त-ज्वर में दाने निकलने के साथ ही उनका रंग नीला हो जाता हैं, गला सूजकर नीला पड़ जाता है, टांसिल सूजी हुई रहती है, उनमें घाव हो जाता है, रोगी ठीक प्रकार से होश में नहीं रहता है, वह किसी को पहचान नहीं पाता, भ्रम हो जाता है, बैठ न सके, बेचैनी अधिक होती है, वह रोने-चिल्लाने लगता है। इस प्रकार के लक्षणों का उपचार करने के लिए इस औषधि की 6 शक्ति की मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।

Yellow Fever पीत-ज्वर (पीला बुखार) Homeopathic medicine and precautions

पीत-ज्वर (पीला बुखार) (Yellow Fever)


परिचय : पीत-ज्वर बहुत अधिक भयानक रोग है। यह रोग अधिकतर बंदर-मच्छर के कारण होता है। इसे पीला बुखार भी कहते हैं। इस रोग को पैदा करने वाले मच्छरें जहाज और बंदरगाह के आस-पास पैदा होते हैं, इसलिए इन्हें बंदर-मच्छर कहते हैं।
यह ज्वर एक प्रकार की लरछुत बीमारी होती है, गर्म देशों में जैसे-दक्षिण अमेरिका, पश्चिम भारत के टापू, पश्चिमी अफ्रीका आदि देशों में अधिकतर यह रोग होता है। स्टैगोमिया नामक एक तरह का मच्छर है जो इस रोग के बीज या जहर को शरीर में फैलाता है।
पीत-ज्वर की चार अवस्था होती हैं :
1. अंकुरावस्था (पेरिओड ऑफ इनकुबेशन)।
2. ज्वरा-वस्था (फीवर स्टेज)।
3. विज्वरावस्था (स्टेज ऑफ रेमिशन)।
4. पतनावस्था (स्टेज ऑफ कोल्लाप्से)।
अंकुरावस्था :
स्वस्थ शरीर में इस रोग का प्रभाव होने पर इसके लक्षण 1 से 3 दिनों तक रहता है। इस अवस्था को अंकुर अवस्था कहते हैं। रोगी का शरीर सुस्त हो जाता है, भूख कम लगती है और जी मिचलाता है।
विभिन्न औषधियों से चिकित्सा :
1. आर्सेनिक : यदि रोगी का शरीर अधिक सुस्त हो तो उपचार करने के लिए आर्सेनिक औषधि-6 शक्ति का उपयोग करना लाभदायक होता है।
2. इपिकाक : अंकुरावस्था होने पर यदि अधिक जी मिचला रहा हो तो उपचार करने के लिए इस औषधि की 3 शक्ति का उपयोग करना चाहिए।
ज्वरावस्था :
रोगी को अधिक ठंड लगती हैं, कंपकंपी होती है, तेज बुखार भी रहता है, शरीर का ताप 101-106 डिग्री तक हो जाता है, नाड़ी तेज हो जाती है, चेहरा उदास रहता है, शरीर से बदबू आती है, सिर में तेज दर्द होता है, शरीर के कई अंगों में दर्द होता है, पेशाब थोड़ी सी मात्रा में, कब्ज और बेचैनी होती है। इस प्रकार के लक्षण होने पर इस अवस्था को ज्वरावस्था कहते हैं।
विभिन्न औषधियों से चिकित्सा :
1. कैम्फर : ज्वरावस्था में यदि रोगी को अधिक तेज ठंड लग रही हो और शरीर में कंपकंपी हो रही हो तो उपचार करने के लिए कैम्फर-3 शक्ति का उपयोग करना चाहिए।
2. बेलेडोना : ज्वरावस्था में यदि रोगी को अधिक तेज बुखार हो तो चिकित्सा करने के लिए इस बेलेडोना औषधि की 3 शक्ति का उपयोग करें।
3. ऐकोनाइट : ज्वरावस्था में अधिक बुखार हो तो उपचार करने के लिए ऐकोनाइट की 3x मात्रा का उपयोग लाभदायक है।
4. सिमिसिफ्यूगा : ज्वरावस्था होने पर यदि शरीर में तेज दर्द हो रहा हो तो उपचार करने के लिए इस औषधि की 6 शक्ति की मात्रा का उपयोग लाभकारी है।
5. इपिकाक : इस बुखार में रोगी को अधिक उल्टी या जी मिचला रहा हो तो चिकित्सा करने के लिए इस औषधि की 3 शक्ति का उपयोग कर सकते हैं।
6. ब्रायोनिया या जेल्स : पीत ज्वर में यदि बुखार 24 घंटे में कभी भी कुछ कम न हो तो रोग को ठीक करने के लिए ब्रायोनिया-3 या जेल्स की 3x मात्रा का प्रयोग करने से लाभ मिलता है।
विज्वरावस्था :
24 से लेकर 60 घंटे तक बुखार रहने के बाद की अवस्था को विज्वरावस्था कहते हैं। इस अवस्था में यदि दर्द ठीक होता है तो बुखार भी ठीक हो जाता है। इस अवस्था से पीड़ित रोगी की जब अच्छी तरह से देख-भाल की जाती है तो वह जल्दी ही ठीक हो सकता है और पतनावस्था नहीं आती लेकिननींद न आना, अजीर्ण या राक्षसों की तरह भूख लगना, शरीर का पीला होना आदि लक्षण हो सकते हैं।
विभिन्न औषधियों से चिकित्सा :
1. काफिया : विज्वरावस्था होने पर नींद न आ रही हो तो उपचार करने के लिए इस काफिया औषधि की 6 शक्ति का उपयोग करना लाभकारी है।
2. आर्सेनिक : विज्वरावस्था में रोगी को यदि गहरी नींद आ रही हो, शरीर सुस्त हो गया हो और शरीर पीला पड़ गया हो तो रोग को ठीक करने के लिए इस औषधि की 30 शक्ति की मात्रा का उपयोग फायदेमंद है।
3. मर्क : विज्वरावस्था में रोगी का शरीर पीला पड़ गया है तो चिकित्सा करने के लिए इस औषधि का उपयोग कर सकते हैं। इस प्रकार के लक्षण होने पर आर्सेनिक की 3 शक्ति का उपयोग कर सकते हैं।
पतनावस्था :
इस अवस्था में शरीर की त्वचा पीली पड़ जाती है, बहुत उल्टी आती है या जी मिचलता रहता है, पेट में जलन होती है, काली उल्टी होती है, दस्ततथा उल्टी में कुछ काले खून के साथ कफ जैसा पदार्थ निकलता है। पेशाब काला होता है, शरीर के कई स्थानों या यंत्रों से खून बहने लगता है, शरीर बर्फकी तरह ठंडा हो जाता है, अधिक बेचैनी होती है, रोगी रोने-चिल्लाने लगता है, हिचकी आती है, ऐंठन होती है, रोगी अपना होशो-हवास खो देता है आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।
विभिन्न औषधियों से चिकित्सा :
1. कैडमियम-सल्फ : पतनावस्था में रोगी को काले रंग की उल्टी आए तो उपचार करने के लिए इस कैडमियम-सल्फ औषधि की 3 या 30 शक्ति की मात्रा का उपयोग करना चाहिए।
2. क्रोटेलस : पतनावस्था होने पर चिकित्सा करने के लिए इस क्रोटेलस औषधि की 3 या 6 शक्ति का उपयोग सबसे अच्छा होता है।
3. आर्सेनिक : इस औषधि की 3x या 6 शक्ति की मात्रा के द्वारा भी इस रोग को ठीक किया जा सकता है। वैसे यह अवस्था तीन से चार घण्टों से ज्यादा नहीं रहती है।
प्रतिषेधक चिकित्सा :
सिमिसि-3, 6 या बैप्टी- θ, 1x।
पीत-ज्वर को ठीक करने के लिए विभिन्न औषधियों से चिकित्सा :
1. ऐकोनाइट : ज्वरावस्था से ठंड लगने के बाद शरीर की गर्मी 102 डिग्री या उससे ऊपर होना, शरीर लाल होना, रूखा रहना और नाड़ी भारी, कड़ी और तेज होना, प्यास बहुत तेज होना, चेहरा लाल पड़ना, सिर में दर्द होना तथा उल्टी में बलगम या पित्त आना आदि लक्षण हो तो चिकित्सा करने के लिए इस औषधि की 3x या 6 मात्रा का उपयोग लाभदायक है।
2. रुबिनीका कैम्बर : बुखार होने की अवस्था के शुरू में और तेज तथा बहुत देर तक ठंड लगने वाली अवस्था तथा कंपकंपी होने पर इस औषधि के एक-एक बूंद लगभग 10-15 मिनट के अंतर पर सेवन करना चाहिए।
3. बेलाडोना : दिमाग में खून अधिक हो जाने पर आंखें लाल होना, सिर की नसें फूल जाना, नाड़ी भारी और तेज होना, प्रलाप होना, दांत को कटकटाने की इच्छा होना आदि लक्षण होने पर उपचार करने के लिए इसकी 3 या 30 शक्ति का उपयोग करना चाहिए।
4. ऐण्टिम-टार्ट : यदि रोगी में जी अधिक देर तक मिचल के लक्षण दिखाई दे तो चिकित्सा करने के लिए इस ऐण्टिम-टार्ट औषधि की 3 विचूर्ण या 6 शक्ति का प्रयोग करना चाहिए।
5. ब्रायोनिया : मलाशय से सम्बन्धित गड़बड़ी के लक्षण होने जैसे- जीभ सफेद या पीली पड़ जाना, होंठ सूख जाना, कब्ज की समस्या रहना, उल्टी आना तथा उल्टी करने की इच्छा करना आदि लक्षण होने पर रोग को ठीक करने के लिए इस ब्रायोनिया औषधि की 3 शक्ति की मात्रा का उपयोग कर सकते हैं।
6. क्रोटेलस : पतनावस्था में रक्त-दोष उत्पन्न हो जैसे- शरीर में कमजोरी महसूस होना, आंखें लाल होना, नाक, आंत या मलाशय से खून बहना तथा शरीर के कई अंगों से खून बहना, पसीना आना, शरीर की त्वचा और आंखें पीली पड़ना आदि लक्षणों में से कोई भी लक्षण हो तो उपचार करने के लिए क्रोटेलस औषधि की 3 शक्ति से उपचार कर सकते हैं।
7. आर्सेनिक-ऐल्ब : पतनावस्था होने पर उपचार करने के लिए इस औषधि की 3 या 6 शक्ति का उपयोग कर सकते हैं। इस औषधि का उपयोग करते समय कुछ लक्षणों को ध्यान रखना चाहिए- नाक का अगला भाग पतला और ठंडा होना, मुंह पीला या नीला होना, जीभ सूखी, काली या मटमैली होना, शरीर का सुस्त होना, खाने-पीने के बाद उल्टी होना, बार-बार जोर से उल्टी होना, मृत्यु का भय होना, पेट में दर्द होना, जलन होने के साथ बूंद-बूंद करके पेशाब आना, पेशाब करने में परेशानी होना, शरीर का ठंडा होना, ठंडा और लसदार पसीना आना, मूत्राशय या जरायु से खून बहना। इस प्रकार के लक्षण होने पर रोग को ठीक करने के लिए इस औषधि की 3 या 6 शक्ति की मात्रा का उपयोग करना लाभकारी होता है।
8. लैकेसिस : स्नायु-दोष उत्पन्न होना जैसे- काला खून बहना, शरीर में अधिक सुस्ती आना, जीभ सूखी रहना और कांपना, प्रलाप होना, काले रंग का पेशाब होना, पेट पर कपड़ा न रख पाना आदि लक्षण होने पर इस लैकेसिस औषधि की 6 शक्ति से उपचार करते हैं।
9. आर्ज-नाई या कैंथरिस : पेशाब करने में रुकावट हो रही हो या किसी प्रकार की परेशानी हो रही हो तो उपचार करने के लिए आर्ज-नाई औषधि की 3 या कैंथरिस औषधि-3x मात्रा का उपयोग फायदेमंद है।
10. कैडमियम-सल्फ : पकाशय में जलन और कतरने-जैसा दर्द हो रहा हो, सांस बंद हो रही हो तथा जी मिचला रहा हो, तेज उल्टी आ रही हो या उल्टी करने की इच्छा हो रही हो तो चिकित्सा करने के लिए इस औषधि की 3 या 30 शक्ति की मात्रा का उपयोग कर सकते हैं।
यदि रोगी को नींद नहीं आ रही हो तो काफिया औषधि की 6 शक्ति से उपचार करना चाहिए। रोगी स्त्री की गर्भ गिरने की आशंका हो तो सिकेलिऔषधि की 3x मात्रा का उपयोग कर सकते हैं। क्रोटेल और लैकेसिस औषधि के प्रयोग करने से पीलिया और पीलिया न बंद हो तो चिकित्सा करने के लिए फास्फोरस औषधि की 3 शक्ति का उपयोग किया जा सकता है। मर्क-सोल-3, जेल्स-3x मात्रा, रस-टक्स-3 तथा विरेट्रम-ऐल्ब-6 शक्ति का प्रयोग सान्निपातिक अवस्था में करने से अधिक लाभ मिलता है। कार्बो-वेज की 30 शक्ति की मात्रा का उपयोग पतनावस्था में कर सकते हैं।
बायोकेमिक मत से चिकित्सा :
नेट्रम-सल्फ औषधि की 3 शक्ति का विचूर्ण का उपयोग सविराम पैत्तिक ज्वर में, पित्त की अधिकता होने पर या शरीर का पीला और हरापन होने की अवस्था में, घास के रंग की या काली उल्टी होने पर किया जाता है। फेरम-फास-12 विचूर्ण से चिकित्सा बुखार की हालत में करते हैं। कैलि-फास-3x मात्रा से पतनावस्था में निस्तेज भाव या हरी या नीले या काले रंग की उल्टी करना और स्राव होने पर उपचार किया जाता है।
उपचार के लिए अन्य उपाय :
  • रोगी के मल, पेशाब तथा उल्टी को इकट्ठा करके अपने मकान से दूर मिट्टी के नीचे गाड़ देना चाहिए।
  • रोगी को ऐसे कमरे में रखना चाहिए जहां हवा अंदर बाहर जाने की सुविधा हो।
  • यदि रोगी का बुखार तेज हो तो इस अवस्था में गर्म पानी से उसके शरीर को पोंछ देना चाहिए।
  • रोगी के कपड़े तथा बिस्तर के वस्त्र को साफ रखना चाहिए।
  • जब रोगी कांप रहा हो तो गर्म पानी में थोड़ा-सा सरसों का चूर्ण मिलाकर उससे फुट-बाथ कराना चाहिए।
  • बुखार उतर जाने पर छेने का पानी पिलाना चाहिए या थोड़ा सा दूध दिया जा सकता है।
  • रोगी को पतले पदार्थों के अलावा कोई भी दूसरी चीज नहीं देना चाहिए।
  • यदि कब्ज की समस्या अधिक हो रही हो तो साबुन के पानी की पिचकारी देने से फायदा हो सकता है।
  • ज्वर की अवस्था में पानी या पीलिया की अवस्था में नींबू का रस सेवन करना चाहिए।
  • रोगी को हमेशा आराम करना चाहिए।