उपदंश (फिरंग-रोग) (Syphilis)
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परिचय- उपदंश एक गर्मी का रोग होता है। अगर कोई स्वस्थ व्यक्ति किसी उपदंश के रोगी के साथ संभोगक्रिया करता है तो इसके कारण उस स्वस्थ व्यक्ति की जननेन्द्रिय में जख्म पैदा हो जाता है। यह जख्म 2 तरह का होते हैं-कठिन-जख्म और कोमल-जख्म।
कठिन-जख्म में रोगी के पूरे शरीर का खून खराब हो जाता है लेकिन कोमल-जख्म में रोगी के पूरे शरीर का खून खराब नहीं होता।
अगर किसी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में उपदंश का विष घुस जाता है तो इसका असर होने में लगभग 20 दिन लग जाते हैं। जब यह रोग अदृश्य अवस्था में रहता है तब यह अन्दर ही अन्दर बाहर प्रकट होने की गति बढ़ा रहा होता है, उपदंश रोग की इस अदृश्य अवस्था को स्थिति-काल कहा जाता है। इस अवस्था में रोगी के शरीर पर उपदंश रोग के किसी तरह के लक्षण नज़र नहीं आते। स्थिति-काल के बाद जब रोग प्रकट होता है तब वह 3 अवस्थाओं से गुजरता है- प्राथमिक अवस्था, द्वितीय अवस्था तथा तृतीय अवस्था।
प्राथमिक अवस्था :- उपदंश रोग के रोगी के साथ संभोग करने से, उसके मुंह से मुंह मिलाने से, उसके प्रयोग किए हुए तौलिए, कपड़े आदि से, रोगी की त्वचा के कटे हुए स्थान या मुंह आदि की श्लैष्मिक-झिल्ली द्वारा रोगी व्यक्ति का जहर स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पहुंच जाता है। लगभग 20 दिन के बाद जिस व्यक्ति के शरीर में जिस स्थान पर उपदंश का जहर पहुंचा होता है उस स्थान में खुजली होने लगती है। वहां पर मटर के दाने जैसा, बिना मवाद वाला एक गोल सा जख्म बन जाता है जिसके चारों ओर की धार ऊंची और सख्त होती है, बीच का भाग गहरा होता है, रोगी के जांघ के पास वाली ग्रन्थि बढ़ने लगती है, सख्त हो जाती है जिसे बाघी कहते हैं। धीरे-धीरे रोगी का जख्म ठीक होने लगता है, बाघी भी कुछ बैठ सी जाती है। यह उपदंश रोग की प्राथमिक अवस्था होती है जो 2 सप्ताह से लेकर 6 महीने तक भी रह सकती है।
द्वितीय अवस्था :- उपदंश रोग की दूसरी अवस्था में रोगी को जख्म पैदा हो जाने के लगभग 3-4 महीने के बाद बुखार आने लगता है, उसका शरीर कमजोर होता जाता है, सिर में दर्द रहता है, शरीर में खून की कमी हो जाती है, रोगी के मुंह और गले में जख्म हो जाते हैं, बाल झड़ने लगते हैं, जोड़ों में दर्द रहता है।
तृतीय अवस्था :- उपदंश के रोग की 2-3 साल में तीसरी अवस्था चालू हो जाती है। इस अवस्था में रोगी की हडि्डयां गलने लगती है, अस्थि-परिवेष्टन (हडि्डयों के ऊपर उन्हें लपेटने वाली परत) में किसी तरह का रोग होने के कारण हडि्डयों में दर्द होने लगता है, रोगी के अंडकोष, जिगर आदि में ट्यूमर बन जाते हैं, गले में जख्म हो जाता है, रोगी को रात को सोते समय बहुत ज्यादा परेशानियां आती है।
उपदंश रोग की प्राथमिक अवस्था की विभिन्न औषधियों द्वारा चिकित्सा-
1. सिफिलीनम- उपदंश रोग की चिकित्सा के दौरान इस रोग की तीनों अवस्थाओं में सिफिलीनम औषधि की 1 मात्रा शुरूआती 2-3 महीनों तक हफ्ते में 1 बार और फिर 15 दिन में एक बार रोगी को देते रहने से बहुत लाभ मिलता है। अगर रोगी को रात में ज्यादा परेशानी हो तो यह औषधि बहुत आराम पहुंचाती है।
2. नाइट्रिक-एसिड- अगर उपदंश रोग का रोगी मर्करी की औषधियों से अपनी चिकित्सा करवा चुका है लेकिन उसे किसी तरह का लाभ नहीं मिला और उसके शरीर में जख्मों वाले स्थान पर मस्से से पैदा हो गए हो उसे नाइट्रिक-एसिड औषधि की 30 शक्ति हर 4 घंटे के बाद देना लाभकारी रहता है।
3. गुआएकम- अगर उपदंश रोग के शुरूआती फोड़े ठीक होने में देर लग रही हो, कठिन-जख्म हो, लिंग के मुंह के आगे की त्वचा सूज गई हो तो रोगी को गुआएकम औषधि का मूल-अर्क या 6 शक्ति का प्रयोग करवाया जा सकता है।
उपदंश रोग की द्वितीय अवस्था की विभिन्न औषधियों द्वारा चिकित्सा-
1. मर्क-सौल- मर्क-सौल को उपदंश रोग की एक बहुत ही खास औषधि माना जाता है। यह औषधि जननेन्द्रिय के कोमल-जख्म, बाघी और बुखार में बहुत अच्छा असर करती है। रोगी के गले में जख्म हो जाना, रात के समय परेशानी बढ़ने के कारण नींद न आना, जख्मों में से बदबूदार स्राव का निकलते रहना, गैंग्रीन जैसे फोड़े जिनमें से अपने आप ही खून निकलता रहता है। इस प्रकार के लक्षणों में रोगी को मर्क-सौल औषधि की 30 शक्ति का सेवन कराना बहुत लाभकारी रहता है।
इसके अलावा उपदंश रोग के कठिन-जख्म, जिनमें दर्द नहीं होता, पीब भी नहीं पड़ती ऐसे लक्षणों में मर्क-प्रोटो आयोडाइड औषधि अच्छा असर करती है। यह औषधि द्वितीय अवस्था के जख्मों में बहुत लाभकारी है। जब जख्म एक ही अवस्था में रहे न कम हो और न ज्यादा हो तो रोगी को मर्क-बिन आयोडाइड देनी चाहिए। गले की गांठों वाले रोगियों को उपदंश रोग की द्वितीय अवस्था तथा तृतीय अवस्था में सिन्नेबेरिस औषधि की 3ग मात्रा दी जा सकती है। मुंह तथा गले के सड़ने वाले जख्मों में तथा बच्चों को होने वाले उपदंश रोग में रोगी को मर्क-डलसिस औषधि का प्रयोग कराया जा सकता है।
2. आर्सेनिक-ऐल्बम- उपदंश रोग में आसेनिक-ऐल्बम औषधि को बहुत ही असरकारक रूप में माना जाता है। रोगी को उपदंश रोग के सड़े हुए जख्म जिनमें कि बहुत तेज दर्द होता है। ऐसे में रोगी को इस औषधि की 30 शक्ति देना लाभकारी रहता है।
3. हिपर-सल्फ- उपदंश रोग के लक्षणों में रोगी के होने वाले जख्म के बीच का भाग लाल हो जाना, जख्म के किनारे फैले हुए हो, पानी जैसा पीब निकलता हो, ग्रन्थियों में मवाद पड़ जाना, सूजन आ जाना, रात के समय दर्द होना, जख्म को छुआ भी न जा सके, सिर के बाल बहुत ज्यादा झड़ते हो तो उसे हिपर-सल्फ औषधि की 30 शक्ति देनी चाहिए।
4. नाइट्रिक-ऐसिड- नाइट्रिक-ऐसिड औषधि को उपदंश रोग के द्वितीय-अवस्था में प्रयोग किया जाता है। जख्म का सड़ जाना, उनमें बहुत ज्यादा मात्रा में दाने निकल आना, खून का निकलना, श्लैष्मिक-झिल्ली पर जख्मों के निशान पड़ जाना, जख्मों के किनारे उभर आना, बाघी में पीब पड़ने के जैसा महसूस होता है, त्वचा में तथा सिर में दर्द होता है, गले में टेढ़े-मेढ़े से जख्म पैदा हो जाते हैं, शरीर पर पीले या भूरे रंग के निशान पड़ जाते हैं, ठण्डी हवा से रोगी का रोग बढ़ जाता है। इस तरह के लक्षणों में रोगी को नाइट्रिक-ऐसिड औषधि की 6 शक्ति दी जा सकती है।
5. मेजेरियम- मेजेरियम औषधि को उपदंश रोग में रात के समय होने वाली परेशानियों को दूर करने में बहुत ही उपयोगी माना जाता है। यह औषधि अस्थि-परिवेष्टन के दर्द में बहुत अच्छा असर करती है। टांग की हड्डी में दर्द होने के कारण हड्डी को छूना भी मुश्किल होता है। ऐसे लक्षणों में इस औषधि का प्रयोग किया जाता है। उपदंश रोग के कारण स्नायु-शूल में यह औषधि लाभकारी होती है। इस औषधि की 6 या 30 शक्ति ली जा सकती है।
6. कार्बो-ऐनीमैलिस- पारे को ज्यादा मात्रा में सेवन करने वालों के लिए यह औषधि बहुत अच्छा असर करती है। रोगी की त्वचा पर तांबे के रंग के दानों का निकल आना विशेष तौर पर चेहरे पर, जांघ तथा बगल की ग्रन्थियों का सख्त पड़ जाना जो ग्रन्थि के आसपास के भाग तक फैल जाती है। ऐसे लक्षणों में रोगी को कार्बो-ऐनीमैलिस औषधि की 3 या 30 शक्ति दी जा सकती है।
7. थूजा- अगर रोगी के लिंग की मुंह की त्वचा पर मस्से हो जाए, सफेद से जख्म पैदा हो जाए तो रोगी को थूजा औषधि की 30 शक्ति देना लाभकारी रहता है।
उपदंश रोग की तृतीय अवस्था में विभिन्न औषधियों का प्रयोग-
1. कैलि-आयोडाइड- कैलि-आयोडाइड औषधि सिर्फ उपदंश रोग की तीसरी अवस्था में ही ली जा सकती है। रोगी की हडि्डयों में काटने की तरह का दर्द होना, नाक तथा माथे की हड्डी में तपकन तथा जलन होना, गहरे जख्म, पीब वाले जख्म आदि लक्षणों में कैलि-आयोडाइड औषधि की 3 शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है।
2. ऑरम-मेट- ऑरम-मेट औषधि उपदंश रोग की द्वितीय तथा तृतीय अवस्था में प्रयोग की जा सकती है। मर्करी के दुरुपयोग के कारण मुंह में अल्सरहो जाना, उपदंश रोग का हमला नाक पर होना, नाक की हड्डी में जख्म हो जाना, नाक से हड्डी के टुकड़े निकलते हो, बदबूदार स्राव आता हो, चेहरे की हड्डी में दर्द होना आदि लक्षणों में ऑरम-मेट औषधि की 30 शक्ति का सेवन किया जा सकता है। इस औषधि का रोगी को सेवन कराते समय उसके मानसिक लक्षणों को भी ध्यान में रखना बहुत जरूरी है जैसे- रोगी हर समय उदास सा बैठा रहता है, उसको किसी भी चीज की खुशी नहीं होती आदि।
3. ऑरम-म्यूर- ऑरम-म्यूर औषधि ऑरम-मेट के दिए गए लक्षणों के आधार पर ही सेवन की जाती है। इस औषधि की 30 शक्ति बहुत अच्छा असर करती है।
4. फाइटोलैक्का- फाइटोलैक्का औषधि उपदंश रोग के बहुत से लक्षणों में प्रयोग की जाती है। रोगी को उपदंश रोग के कारण वात-रोग हो जाए, मांस-पेशियों के जोड़ों में दर्द जो रात को और ठंडे मौसम मे बढ़ जाता है। इस तरह के लक्षणों मे रोगी को इस औषधि की 3 शक्ति देने से लाभ मिलता है।
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