कर्ण-मूल की जलन (गलपेड़े)
परिचय- कान के निचले भाग में एक गांठ होती है जिसे कर्ण-मूल कहा जाता है। जब यह रोग होता है तो यह गांठ किसी प्रकार के जीवाणुओं को जबड़े में प्रवेश कर जाने के कारण सूज जाती है और लाल हो जाती है तथा कड़ी हो जाती है, इसमें दर्द भी होता है। इस रोग के कारण रोगी को बुखार भी हो जाता है तथा उसके गाल सूज जाते हैं, गर्दन हिलाया भी नहीं जाता है, मुंह से लार निकलती रहती है। यह रोग जवान युवकों और बच्चों को अधिकतर होता है, यह कभी-कभी ही बूढ़ों तथा स्त्रियों को हो सकती है। यह एक प्रकार का संक्रामक रोग है। शुरू होने के चौथे दिन तक पूरा बढ़ जाता है, आठ-दस दिन में सब लक्षण दब जाते हैं।
जब यह रोग होता है तो शुरू के चौथे दिन तक इसके लक्षण बढ़ जाते हैं और आठ-दस दिन में सब लक्षण दब जाते हैं। इसमें डर की बात सिर्फ तब होती है जब रोग का असर गांठों को छोड़कर स्त्री के स्तन अथवा पुरुष के अण्डकोष पर होता है।
विभिन्न औषधियों से चिकित्सा :-
1. सल्फर :- यह रोग होने के साथ ही पीब होने की आंशका हो तो चिकित्सा करने के लिए इस औषधि की 30 शक्ति का सेवन करने से अधिक लाभ मिलता है।
2. पैरोटिडीनम :- इस औषधि को रोग प्रतिरोधक के रूप में सेवन करने के लिए इसकी 6 या 30 शक्ति की मात्रा दिन में दो से तीन बार देते रहने से लाभ होता है। जिस रोगी को यह रोग हुआ हो उसके रोग को ठीक करने के लिए इस औषधि की मात्रा चार घंटे पर उपयोग में लेना चाहिए।
3. ऐकोनाइट :- इस रोग से पीड़ित रोगी को बुखार हो गया हो, बेचैनी हो रही हो और अधिक परेशानी हो रही हो, प्यास लग रही हो, दर्द हो रहा हो तो ऐसी स्थिति में रोग की चिकित्सा करने के लिए इस औषधि की 30 शक्ति का सेवन करना चाहिए।
4. बेलाडोना तथा मर्क आयोडाइड :- कर्ण-मूल की जलन का उपचार करने के लिए इस औषधि की 3X मात्रा का सेवन करना लाभदायक होता है। इस औषधि के सेवन करने के बाद मर्क आयोडाइड औषधि की 30 शक्ति का सेवन करना चाहिए। इन दोनों औषधियों का सेवन आधा-आधा घंटे बाद करते रहना चाहिए।
5. फाइटोलैक्का :- मुख्य तौर पर ग्रन्थियों के रोग को ठीक करने के लिए इस औषधि का उपयोग किया जाता है। यदि ग्रन्थियां सूज गई हो तो इस औषधि की 3 शक्ति से उपचार करना चाहिए। किसी अन्य औषधि से उपचार करने पर लाभ न हो तो इस औषधि से उपचार करना लाभदायक होता है।
6. रस-टक्स :- कर्णमूल-ग्रन्थि में अगर सूजन आ गई हो तथा रोग का प्रभाव बाईं ओर के कान पर हो तथा रोग ग्रस्त भाग में गहरी लाली, तेज दर्द होने के लक्षण हो और बरसात की हवा के कारण रोग उत्पन्न हो गया हो तो उसका उपचार करने के लिए इस औषधि की 3 शक्ति का सेवन करने से अधिक लाभ मिलता है।
7. पल्सेटिला :- यदि कर्ण-मूल पर रोग का प्रभाव हो और कान में दर्द हो रहा हो, रोग ग्रस्त भाग पर सिकाई करने से आराम मिल रहा हो तब इस औषधि की 30 शक्ति का उपयोग करना चाहिए। इस रोग का आक्रमण स्तनों या अण्डकोष पर हो तो इस औषधि का प्रयोग करने से लाभ मिलता है।
8. लैकेसिस :- गले की बाईं ग्रन्थि में अधिक सूजन हो जाए, रोग ग्रस्त भाग को छूने से असहनीय दर्द हो, गले से कुछ भी निगला न जा रहा हो, गले के अन्दर दर्द हो रहा हो, चेहरा लाल तथा सूज गया हो तो इस अवस्था में रोग को ठीक करने के लिए इसकी 30 शक्ति का उपयोग फायदेमंद होता है।
9.. हिपर-सल्फर :- कर्णमूल पर जलन होने के साथ ही कान में पीब पैदा होने पर चिकित्सा करने के लिए इस औषधि की 6 या 30 शक्ति की मात्रा का उपयोग लाभकारी होगा।
10. ऐब्रोटेनम :- कर्ण-मूल की जलन को ठीक करने के लिए इस औषधि की 3 या 30 शक्ति की मात्रा का उपयोग करना चाहिए। रोगी को दस्त हो जाए, गठिया या बाय का दर्द हो जाए, गठिया या बाय का रोग बन्द हो तो बवासीर हो जाए या कर्ण-मूल पर सूजन दब जाए तो स्तनों या अण्डकोष में सूजन हो जाए तो ऐसे रोग के लक्षणों को ठीक करने के लिए इसका उपयोग अधिक लाभदायक होता है।
11. सिलिका :- जलन पुरानी हो गई हो और जल्दी ठीक नहीं हो रही हो तो उसे ठीक करने के लिए इस औषधि की 6 या 30 शक्ति का उपयोग लाभकारी होता है।
12. मर्क सौल :- गाल के दायीं तरफ सूजन हो, मुंह से बदबू आ रही हो, मुंह में सैलाइवा भर जाए, प्यास लग रही हो बदबूदार पसीना आ रहा हो तथा कर्ण-मूल पर जलन हो रही हो तो इस रोग की चिकित्सा के लिए इस औषधि की 30 शक्ति का प्रयोग करना चाहिए।
13. मर्क-बिन-आयोड :- कर्ण-मूल की गांठें सूज जाए या चबाने में कष्ट हो तो उपचार करने के लिए इस औषधि की 6X मात्रा का विचूर्ण तथा फाइटो औषधि की 1X मात्रा का उपयोग कर सकते हैं। इन औषधियों का प्रयोग छ: घंटे का अन्तर देकर करना चाहिए।
14. लाइकोपोडियम :- गले की सूजन दांयी तरफ से शुरू होकर बायीं तरफ हो गई हो, रोगी को गर्म पेय पदार्थ पीने की इच्छा हो तथा इन लक्षणों के होने के साथ ही कर्ण-मूल में जलन हो रही हो तो उसे ठीक करने के लिए इस औषधि की 30 शक्ति का सेवन करने से अधिक लाभ मिलता है।
15. ऐकोन :- कर्ण-मूल की जलन होने के साथ ही बुखार हो तो रोग को ठीक करने के लिए इसकी 3X औषधि की दो से तीन मात्रा का उपयोग करना अधिक लाभदायक है।
अन्य उपचार :-
- इस रोग से पीड़ित रोगी को अधिक से अधिक आराम करना तथा ठण्डी और गीली हवा से बचकर रहना चाहिए।
- रोग ग्रस्त भाग पर गर्म सिंकाई करनी चाहिए।
- सर्दी से बचकर रहना चाहिए क्योंकि यह रोग अधिकतर सर्दी लगने के कारण होता है।
- रोगी को दूध या मछली या मांस का ज्यादा सेवन नहीं करना चाहिए।
- रोग ग्रस्त भाग को रूई से ढककर रखना चाहिए ताकि मक्खी आदि न लग पाए।
- रोग होने की पहली स्थिति में बार्ली, सागू या शोरबा आदि का सेवन करना उचित होता है।
- रोगी को हल्का भोजन और शीघ्र पचने वाली चीजें तथा पुष्ट और पतली चीजों का सेवन करना चाहिए।
- आयोडाइट ऑफ मर्करी 5 ग्रेन एक औंस ओलिब तेल के साथ मिलाकर उसमें थोड़ी रूई तर करके उसे जलन वाली जगह पर लगाना चाहिए।
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